//पाती// मैं सहर का पहरेदार एक रात यूँ टहलता हूँ । हर गूँजती तन्हाई में मैं वक़्त को टटोलता हूँ । तू धड़क सी आ चुकी मेरी रूह में आ बैठी है । तेरी चाँदनी के आग़ोश में हर मोड़ को मैं तकता हूँ । प्रिय रूह, तुम्हें सब यहाँ बहुत कम जानते हैं, और आज मैं तुम्हें कुछ कहने का प्रयास कर रहा हूँ। यूँ तो हर रोज़ तुम्हारी आवाज़ सुनने का बहाना ढूँढता हूँ । फिर एक रोज़ तुम से इतनी बातें हो जाती हैं। वक़्त की इन चंद लमहों की रेज़गारी से, मैंने पूरा जहाँ बसा रखा है। लेकिन फिर भी तुम कोसों दूर हो। यह दूरी भी अपनी बनायी हुई है, काफ़ी हद तक। थोड़ा तुम हिचकिचाती हो और मैं घबराता हूँ। हर नए काम को करने का, नया ठिकाना ढूँढ लेता हूँ। सदियों और जन्मों से शायद ऐसे ही भागता रहा हूँ। मेरे जीवन में शायद तुम भी हिस्सा रही हो, हमेशा से। पर कल तुम से बातें कर के, कुछ बदल सा गया। कल मैंने जाना के मैं जितना डरता हूँ उतना ही तुम भी रुकी हुई हो। मेरे हर उस छोटे बड़े साहसी और निरीह कार्य को तुम समतल करने जुटी हुई हो। पर स्थिति और वाक़यात कुछ ऐसे बिछे हैं, के हर बेपरवाह से लम्हे को हम कहीं और छुपाते रहते हैं। पर अब मैं जान गया हूँ के तुम को पाने की कोशिश नहीं सिर्फ़ इंतज़ार ही करना है।अब वो उलझी सी बातें भी एक मज़बूत रस्सी सा सहारा हैं। हर एक गाँठ को अपनी सीढ़ी बना तुम्हारी मंज़िलें फ़तह कर रहा हूँ। एक दिन तुम बोल रही थी के मेरे साथ हो तुम, पास नहीं तो क्या, मेरी आँखों से ज़िंदगी जी रहीं हो। यही सच है और यह अब मेरी समझ आ गया है। तो फिर आओ साथ में कुछ थोड़ा और इंतज़ार कर लेते हैं। उन भीगे खतों में स्याही सूखे, उसके पहले कुछ शब्द बदल लेते हैं। कुछ वाक्य जुड़ेंगे तो सिर्फ़ ख़त लम्बा ही होगा। ज़िंदगी तो तुम्हारी हो चुकी है, तुम्हारे साथ ही जाएगी।