महज 8 की थी मैं किसी घर की आशिफा थीं मैं तो किसी की घर की सम्मान थी मैं। मेरे भी सपने थे कुछ परिंदों के जैसे, पर थी मैं खामोश किसी बस्ती को लेकर, कुछ मेरे भी अरमान थे, आसमां में उड़ने के पर लगाया समाज ने कुछ गंदा इल्ज़ाम, फिर भी मै बेहया थी, थोड़ी बेशर्म सी थी। इस समाज के नजर में, घुमती थी मैं चौराहों पर जाकर, जैसे अस्तित्व नहीं हो मेरा कोई, ना मेरी पहचान हो। नज़रें झुका कर चलना नहीं आता था मुझे, इसलिए थोड़ी बेशर्म थी मैं। दुनिया के नज़र में एक काठ की पुतली थी, मैं और एक दिन एक हैवान आया। और कर गया मुझे शर्मसार । था मुझे कभी लड़की होने का गुरूर, पर थी, मैं अब हालात से मजबूर। लग गई, बेड़ियां अब मेरे पांवों में, पर थी मजबूर इस दुनिया से मै। महज 8 की थी मैं किसी घर की आशिफा थीं मैं। एक नन्ही सी जान थी मैं। मुझे भी बड़ा होना था, किसी बचपन में जी कर। वो हैवानों ने जलाया आज हैवानियत की आग... और कर दिया मुझे किचड़ में राख।। #Quotes #Nutankanak #Justice