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खुद से कभी ना हारा हूं मैं । हां इक बंजारा हूं मैं

खुद से कभी ना हारा हूं मैं ।
हां इक बंजारा हूं मैं...

सुबह यहां पर, शाम वहां पर
करता करतब, बात बनाकर ।
मिले कोई भी सब अपने है
सबको आता खूब हंसाकर ।।

अंदर जाने कितना रोया हूं,
वहीं सभी को छोड़ आया मैं ।
हां इक बंजारा हूं मैं...

सौम्य सी बाते होती अक्सर
आरती गाते गुंजन करकर ।
प्रीति यहां कुछ पल की होती
आती सबकी याद बिछड़कर ।।

नैनो में कितनी शामे बसी है,
उनको साथ ले आया हूं मैं।।
हां इक बंजारा हूं मैं...

©Divyansh Sharma
  #D.S.K.

#d.S.K. #कविता

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