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"कृष्ण जीवन में राधा और रुक्मिणी तुलनात्मक साहित्य

"कृष्ण जीवन में राधा और रुक्मिणी तुलनात्मक साहित्य : एक कलंक" 
              हमारे समाज के नायकों के अतीतीय जीवन वृत्तान्तों को साहित्य अथवा लेखन जगत उनके वास्तविक व गरिमापूर्ण जीवन के मौलिक अथवा मूल अधिकारों को लेकर रूढ़िवादी मनोदशाओं में पूर्वाग्रहों का शिकार क्यों बनाता रहा है? सत्य के कटु होने को साहित्यिक स्वीकार्यता प्रदान करना जायज़ है, परन्तु उसे मिथ्यावाद के शिलखण्डों पर किसी विशिष्ट वर्चस्ववाद के अभिलाषाओं की प्रतिपूर्ति हेतु बलात्लेखित किया जाना कदापि नहीं। बात आदिकाल की हो या रीतिकाल की हो अथवा मध्य आधुनिक एवं वर्तमान की हो, समस्त कालखण्डों के साहित्य का यदि तटस्थ विवेचन किया जाये तो निष्कर्ष में यह साहित्यिक में नैतिक पतित सद्यस्नात जीवन्त विधाओं के अतिरिक्त कुछ और दृष्टिगत ही नहीं होता। हालांकि सभी में ऐसा नहीं है कुछ में नैतिक सत्यनिष्ठाओं ने सामाजिक प्रबोधनों के नैतिकीकरण में भी अविस्मरणीय योगदान दिया है, जिनसे समाज में अतीत सह भावी भी आकार लेता रहा है। परन्तु यहाँ तात्पर्य उससे है जो विशेष प्रभावक की भूमिकाओं में दिशानिर्देशन करता रहा हो।
       
                कभी भी समाज में नायकत्व की भूमिका जिसने  निभायी वे स्वयं में एक विशेष व्यक्तित्व रहे हैं या यूँ कहें कि समाज में बहुतों के पास विलक्षण प्रतिभायें हमेशा  से देखने को मिलती रही हैं, जिन्होंने स्वयं को भिन्न - भिन्न क्षेत्रों में किसी न किसी प्रकार से समाज के नेतृत्वकर्ता के रूप में स्वयं को स्थापित किया है। वह चाहे त्रेता के राम रहे या फिर द्वापर के कृष्ण अथवा आज के सन्दर्भ में चाणक्य, गांधी, नेहरू अथवा सुभाष। परन्तु इन सभी का अपना एक व्यक्तिगत अतीत भी रहा है। वास्तव में जब किसी व्यक्ति के साये में किसी भी क्षेत्र का सामाजिक जनाधार भावी को स्वीकृति देने लगता है तो उसके निकटस्थ प्रशंसको द्वारा उसके अतीतीय जीवन के प्रसंगों में उसके विलक्षण प्रतिभाओं से संपादित कार्यों के महिमामंडनों के महादौर का प्रारम्भ हो जाता है एवं विरोधियों द्वारा आलोचनाओं का भी।

               वास्तव में अपने-अपने स्थान पर दोनों सही हैं एवं दोनों की एक स्वस्थ समाज हेतु महती आवश्यकता भी है, परन्तु इसका यह कतई तात्पर्य नहीं है कि ऐसे कलमकारों को अपुष्ट एवं मिथ्याकृत सृजन का अधिकार प्राप्त हो जाता है। किसी भी विषयवस्तु पर लेखनी ने साहित्य सृजन का मानक क्या रखा है, क्या वे नैतिकताओं को पुष्ट करती हैं अथवा नहीं, निष्पक्षता का स्तर क्या है इत्यादि बातें उतनी ही मायने रखती हैं जितनी की उनकी प्रासंगिकतायें।

              चलिये हम अब सीधे प्रकरण से जुड़ते हुये उक्त सन्दर्भों में श्री कृष्ण और कृष्ण-साहित्य के असंगत पहलुओं पर नज़र डालते हैं और उम्रवार कुछ इनके अन्तर्सम्बन्धों का विश्लेषण करते हैं। वैसे श्री कृष्ण हमारे हिन्दु धर्म में ईश्वर के रुप में  पूज्य हैं परन्तु यदि हम इनके जीवन चरित्रों का अध्ययन करें तो यह ईश्वर नहीं बल्कि एक साहस, सामर्थ्य और चातुर्यता के विलक्षण धनी व्यक्तित्व ही दिखाई देते हैं।
"कृष्ण जीवन में राधा और रुक्मिणी तुलनात्मक साहित्य : एक कलंक" 
              हमारे समाज के नायकों के अतीतीय जीवन वृत्तान्तों को साहित्य अथवा लेखन जगत उनके वास्तविक व गरिमापूर्ण जीवन के मौलिक अथवा मूल अधिकारों को लेकर रूढ़िवादी मनोदशाओं में पूर्वाग्रहों का शिकार क्यों बनाता रहा है? सत्य के कटु होने को साहित्यिक स्वीकार्यता प्रदान करना जायज़ है, परन्तु उसे मिथ्यावाद के शिलखण्डों पर किसी विशिष्ट वर्चस्ववाद के अभिलाषाओं की प्रतिपूर्ति हेतु बलात्लेखित किया जाना कदापि नहीं। बात आदिकाल की हो या रीतिकाल की हो अथवा मध्य आधुनिक एवं वर्तमान की हो, समस्त कालखण्डों के साहित्य का यदि तटस्थ विवेचन किया जाये तो निष्कर्ष में यह साहित्यिक में नैतिक पतित सद्यस्नात जीवन्त विधाओं के अतिरिक्त कुछ और दृष्टिगत ही नहीं होता। हालांकि सभी में ऐसा नहीं है कुछ में नैतिक सत्यनिष्ठाओं ने सामाजिक प्रबोधनों के नैतिकीकरण में भी अविस्मरणीय योगदान दिया है, जिनसे समाज में अतीत सह भावी भी आकार लेता रहा है। परन्तु यहाँ तात्पर्य उससे है जो विशेष प्रभावक की भूमिकाओं में दिशानिर्देशन करता रहा हो।
       
                कभी भी समाज में नायकत्व की भूमिका जिसने  निभायी वे स्वयं में एक विशेष व्यक्तित्व रहे हैं या यूँ कहें कि समाज में बहुतों के पास विलक्षण प्रतिभायें हमेशा  से देखने को मिलती रही हैं, जिन्होंने स्वयं को भिन्न - भिन्न क्षेत्रों में किसी न किसी प्रकार से समाज के नेतृत्वकर्ता के रूप में स्वयं को स्थापित किया है। वह चाहे त्रेता के राम रहे या फिर द्वापर के कृष्ण अथवा आज के सन्दर्भ में चाणक्य, गांधी, नेहरू अथवा सुभाष। परन्तु इन सभी का अपना एक व्यक्तिगत अतीत भी रहा है। वास्तव में जब किसी व्यक्ति के साये में किसी भी क्षेत्र का सामाजिक जनाधार भावी को स्वीकृति देने लगता है तो उसके निकटस्थ प्रशंसको द्वारा उसके अतीतीय जीवन के प्रसंगों में उसके विलक्षण प्रतिभाओं से संपादित कार्यों के महिमामंडनों के महादौर का प्रारम्भ हो जाता है एवं विरोधियों द्वारा आलोचनाओं का भी।

               वास्तव में अपने-अपने स्थान पर दोनों सही हैं एवं दोनों की एक स्वस्थ समाज हेतु महती आवश्यकता भी है, परन्तु इसका यह कतई तात्पर्य नहीं है कि ऐसे कलमकारों को अपुष्ट एवं मिथ्याकृत सृजन का अधिकार प्राप्त हो जाता है। किसी भी विषयवस्तु पर लेखनी ने साहित्य सृजन का मानक क्या रखा है, क्या वे नैतिकताओं को पुष्ट करती हैं अथवा नहीं, निष्पक्षता का स्तर क्या है इत्यादि बातें उतनी ही मायने रखती हैं जितनी की उनकी प्रासंगिकतायें।

              चलिये हम अब सीधे प्रकरण से जुड़ते हुये उक्त सन्दर्भों में श्री कृष्ण और कृष्ण-साहित्य के असंगत पहलुओं पर नज़र डालते हैं और उम्रवार कुछ इनके अन्तर्सम्बन्धों का विश्लेषण करते हैं। वैसे श्री कृष्ण हमारे हिन्दु धर्म में ईश्वर के रुप में  पूज्य हैं परन्तु यदि हम इनके जीवन चरित्रों का अध्ययन करें तो यह ईश्वर नहीं बल्कि एक साहस, सामर्थ्य और चातुर्यता के विलक्षण धनी व्यक्तित्व ही दिखाई देते हैं।