लकड़ी के ये खिलौने, दिल को लुभा रहे हैं बचपन के दिन सुहाने, फिर याद आ रहे हैं बचपन जहाँ पे बीता, वो घर यहीं कहीं है वो रीछ वो मदारी, बंदर यहीं कहीं है बच्चे कहीं पे मिल के, हल्ला मचा रहे हैं बचपन के दिन सुहाने, फिर याद आ रहे हैं नादान से वो सपने, छुटपन में जो बुने थे किस्से बड़े मज़े के, दादी से जो सुने थे किस्से वो याद आ कर, फिर गुदगुदा रहे हैं बचपन के दिन सुहाने, फिर याद आ रहे हैं भाई ने प्यार से ज्यूँ, आवाज़ दी है मुझको काका ने जैसे कोई, ताक़ीद की है मुझको ऐसा लगा पिताजी मुझको बुला रहे हैं बचपन के दिन सुहाने, फिर याद आ रहे हैं ये किसकी गुनगुनाहट, लोरी सुना रही है जैसे कि माँ थपक के, मुझको सुला रही है क्यूँ नींद में ये आँसू, बहते ही जा रहे हैं बचपन के दिन सुहाने, फिर याद आ रहे हैं ©Aashish Anu #gzal