अगर यहीं के हो, तो ईतना "डर" कैसे। मगर चोरी से घुसे हो,तो ये तुम्हारा "घर" कैसे। अगर तुम "अमनपसंद" हो, तो ईतनी "गदर" कैसे। जिसे खुद "खाक" कर रहे हो वो तुम्हारा "शहर" कैसे। कल तक सिर्फ "कोहरा"था, मेरे शहर कि "फिंज़ा" मे। आज "नफरत"की धुआं है, तो सुहानी "सहर" कैसे। सिर्फ लहजा "सख्त" होता, तो हम चुप भी रह ले ते। मगर तुम्हारे "लफ्जों" नारो मे जिहादी "जहर" कैसे। सियासत से "खिलाफत"करो हमे कोई गिला नही है। रियासत से "दगा" होगी, तो हम करे "सब्र" कैसे। #अगर_यहां_के_हो_तो_ईतना_डर_कैसे #मगर_चोरी_से_घुसे_हो_तो_ये_तुम्हारा_घर_कैसे