मैं भष्मासुर।। मैं मानव हूँ मैं श्रेष्ठ रहा, मैं बुद्धि-बल से ज्येष्ठ रहा। मेरी विजय का बजता डंका, हस्तिनापुर हो या हो लंका। मुझमे विवेक विशेष रहा, जग अविवेकी शेष रहा। इस युग का मैं निर्माता हूँ, नीति-नियंता विधाता हूँ। धरा नदी ये पर्वत सारे, मेरे विवेक के आगे हारे। पाषाण में तप था बहुत किया, मनचाहा वर सृष्टि ने दिया। पल में मैं सागर लांघ रहा, मुर्गा अभी भी देता बांग रहा। वो सदियों से वहीं पे बैठा रहा, मानो जड़ता ही उसमे पैठा रहा। हमने विकास का मंत्र लिया, हर काम हवाले यंत्र किया। अब मौत भी मुझसे हारी है, मेरी बुद्धि ही सबपे भारी है। मैं ब्रह्मा विष्णु महेश हुआ, जग बाकी सब दरवेश हुआ। जो आज मैं अंदर झांक रहा, कितना सच है जो हांक रहा। मैंने जो तप था बड़ा किया, वर ले सृष्टि को खड़ा किया। अमरत्व का वर था मांगा मैने, था सृष्टि नियम भी लांघा मैंने। जो मांगा मुझको मिलता रहा, मेरे बल से जग ये हिलता रहा। सृष्टि से वर ले दम्भ हुआ, एक खोट प्रकट अविलम्ब हुआ। जो हुआ मैं निर्माता सृष्टि का, बदला था सार मेरी दृष्टि का। ले वर करने मैँ अंत चला, हत्या उसकी जो अनन्त चला। प्रकृति भी जब मुझसे हारी, बोली कि अब मेरी बारी। बन मोहिनी भौतिकता छाई थी, अभिशाप छुपा संग लायी थी। मैं कामातुर मोहित उस पर, एक नृत्य हुआ उस उत्सव पर। निज हाथों में भष्म का वर मेरा, नृत्य ऐसा था कर-नीचे सर मेरा। फिर वही कहानी गढ़ी गयी, एक छद्म लड़ाई लड़ी गयी। था भष्मासुर अवतरित हुआ, बलशाली पर भंगुर त्वरित हुआ। मैं मनुज नहीं मैं भष्मासुर, अपनी हत्या को ही आतुर। वृत्ताकार समय जो चलता है, हर युग भष्मासुर मरता है। ©रजनीश "स्वछंद" मैं भष्मासुर।। मैं मानव हूँ मैं श्रेष्ठ रहा, मैं बुद्धि-बल से ज्येष्ठ रहा। मेरी विजय का बजता डंका, हस्तिनापुर हो या हो लंका। मुझमे विवेक विशेष रहा, जग अविवेकी शेष रहा।