हो गई हूं बहुत अब किस्मत के हाथों मजबूर! रह नहीं पा रही हूं अब अपनों से इतने दूर। हरदम हरपल गांव की याद सताती है, मां के हाथों की रोटी खाने को अब जी तरस जाती है, अनुज का प्यार याद आता है तो आंखे भर आती है, पापा की सुनाई हुई सारी कहानियां सुनने को फिर से जी चाहती है, दादाजी - दादी मां की सेवा किए बिन महीनों गुजर गए! खुले हवा में स्वछंद घूमे हुए कितने दिन हो गए! आते हैं ख्याल कि अब बस पंछी बन जाती, तोड़ के सारे भविष्य के जंजीर, बालमन की तरह फिर उड़ पाती।। जहां स्वछंद था मन , वातावरण भी भय रहित, जहां नहीं थी कल की चिंता, नहीं था कोई संशय भी, प्रेम की अविरल धार बहती थी जहां, नहीं था कोई द्वेष किसी से, और नहीं था किसी से कोई भय, अंतर्मन की चाहत है कि... फिर से उस उपवन में चहंकू, फिर से उन फूलों में महंकू, है तमन्ना अब बस कि... हर उस कामयाबी को चूमुं, जिसके लिए ये कष्ट सहती हूं। अपनों से दूर रहती हूं, और तन्हा रातों को रो लेती हूं। एकबार छूकर बुलंदी की शिखर! फिर से उस आंगन में चहकूं, जिस आंगन की चिड़िया हूं, और जहां सुनहरा बचपन गुजारी हूं।।😍 04:45AM पर सुबह हुई होगी बाकी लोगों के लिए ,मेरे लिए तो अभी रात भी नहीं हुई है।(अनिद्रा) और उस पर ये घर की याद, व्यथा लिख के दूसरों को भी व्यथित करने का मन तो नहीं करता पर यह ही तो एकमात्र जरिया है हम जैसे प्रवासियों के लिए,,और सच में ये भविष्य सुनहरा करने के होड़ में जीवन के वास्तविक आंनद से बहुत वंचित हैं मगर आशावादी तो हैं,,मंजिल मिलेगी और हमेशा की तरह कविता के अंत में आशावादी पंक्तिया भी संलग्न है😊 but i was literally cried when i write this ..... try to jot down inner feeling which directl