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कपड़ों की दुनिया और संस्कृति (व्यंग्य) पुरुषों के क

कपड़ों की दुनिया और संस्कृति (व्यंग्य) पुरुषों के कच्छे का कोई आत्म सम्मान नहीं है। उसे शिकायत करनी चाहिए कि जरा हमें भी पेटीकोट/ब्लाउज वाला सम्मान दो। जैसे कि एक ही कपड़े से दर्जी जाँघिया बनाता है, वैसे ही कोई ब्लाउज सीता है। उनके पाश्चात्य रिश्तेदारों में भी कोई सेल्फ रेस्पेक्ट नहीं है। साड़ी, सलवार, जीन्स, स्कर्ट के पास संस्कृति है, सभ्यता है, ब्लाउज के पास उन्मुक्तता है, कामुकता है। बुर्के और दुप्पटे के पास तहजीब है, संस्कार है, धार्मिक पहचान है। कपड़ा गज भर ज्यादा लंबा हो तो राष्ट्र की पहचान है। लेकिन निकर को तो कोई पूछता ही नहीं। धोती और पैंट के हिस्से में तो लाठी और बंदूक आयी है। गुंडागर्दी आयी है। चौकीदारी आयी है। लेकिन चौकीदारी, पहरेदारी का सारा काम चौपट हो जाता है जब साड़ी अपनी जगह से थोड़ा हट जाती है, दुपट्टा सरक जाता है, बुर्का उतर जाता है। मैं हैरान हूँ इस भेदभाव से। इस खुलेआम धोखेबाजी से। थोड़ा सम्मान बनियान वालों को भी दो। उन्हें भी चार कोनों में सोने की संदूक में छिपा कर रखो। ताकि उन पर किसी के गंदे नजरों की काजल ना लग जाये। पैंट को भी स्कर्ट की तरह महफूज बनाओ। उनको सड़कों की धूल से बचाओ। धोती को साड़ी सा रंगीन और खूबसूरत बनाओ। उसको भी संस्कृति की जायदाद में कुछ हिस्सा दो। शर्म हया के साथ साथ उसे भी थोड़ा सेक्सी बनाओ। थोड़ी कसरत साड़ी, सलवार से भी करवाओ। पैजामा बेचारा लाठी पकड़े पकड़े थक गया है। अब उसे खाट पे पड़े रहने दो। अल्लाह ने तो सबको बराबरी बक्शी है। सो अब साग बथुआ काट के, हल्दी का दाग कमीज अपने हवाले लेगा। बुरका उसे उसका वाज़िब हक़ दिलवायेगी। अपने ऊँचे ओहदे से नीचे उतर कर गली के चार चक्कर लगायेगी। वैसे भी काले कपड़े पे धूल का रंग जरा देर से चढ़ता है। 

#कपड़े #YQdidi #YQbaba
कपड़ों की दुनिया और संस्कृति (व्यंग्य) पुरुषों के कच्छे का कोई आत्म सम्मान नहीं है। उसे शिकायत करनी चाहिए कि जरा हमें भी पेटीकोट/ब्लाउज वाला सम्मान दो। जैसे कि एक ही कपड़े से दर्जी जाँघिया बनाता है, वैसे ही कोई ब्लाउज सीता है। उनके पाश्चात्य रिश्तेदारों में भी कोई सेल्फ रेस्पेक्ट नहीं है। साड़ी, सलवार, जीन्स, स्कर्ट के पास संस्कृति है, सभ्यता है, ब्लाउज के पास उन्मुक्तता है, कामुकता है। बुर्के और दुप्पटे के पास तहजीब है, संस्कार है, धार्मिक पहचान है। कपड़ा गज भर ज्यादा लंबा हो तो राष्ट्र की पहचान है। लेकिन निकर को तो कोई पूछता ही नहीं। धोती और पैंट के हिस्से में तो लाठी और बंदूक आयी है। गुंडागर्दी आयी है। चौकीदारी आयी है। लेकिन चौकीदारी, पहरेदारी का सारा काम चौपट हो जाता है जब साड़ी अपनी जगह से थोड़ा हट जाती है, दुपट्टा सरक जाता है, बुर्का उतर जाता है। मैं हैरान हूँ इस भेदभाव से। इस खुलेआम धोखेबाजी से। थोड़ा सम्मान बनियान वालों को भी दो। उन्हें भी चार कोनों में सोने की संदूक में छिपा कर रखो। ताकि उन पर किसी के गंदे नजरों की काजल ना लग जाये। पैंट को भी स्कर्ट की तरह महफूज बनाओ। उनको सड़कों की धूल से बचाओ। धोती को साड़ी सा रंगीन और खूबसूरत बनाओ। उसको भी संस्कृति की जायदाद में कुछ हिस्सा दो। शर्म हया के साथ साथ उसे भी थोड़ा सेक्सी बनाओ। थोड़ी कसरत साड़ी, सलवार से भी करवाओ। पैजामा बेचारा लाठी पकड़े पकड़े थक गया है। अब उसे खाट पे पड़े रहने दो। अल्लाह ने तो सबको बराबरी बक्शी है। सो अब साग बथुआ काट के, हल्दी का दाग कमीज अपने हवाले लेगा। बुरका उसे उसका वाज़िब हक़ दिलवायेगी। अपने ऊँचे ओहदे से नीचे उतर कर गली के चार चक्कर लगायेगी। वैसे भी काले कपड़े पे धूल का रंग जरा देर से चढ़ता है। 

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