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सत्ताइश साल का परपोषि, घृणित लोक में प्रवासी, जह


सत्ताइश साल का परपोषि,
घृणित लोक में प्रवासी, 
जहर भरी मझधार में, 
एक क्षीर बूंद का अभिलाषी, 
वो अभिलाषा, चाहत, बंधन,खुशियाँ, संघर्ष, 
फिर मृगतृष्णा का आहार हो गया, 
जब से एक युवा बेरोजगार प्रेमी हो गया।

सोलह साल पढ़ाई की, 
मिले कुछ काग़ज़,
जो रद्दी है, 
सीख जो शून्य है, 
ये शून्यता तो पावन है,
इसे कीचड़ कहते है, 
जुझ रहा है हर युवा इससे, 
फेंक रहे है पत्थर, 
रस्सी की जगह, 
सब लोग जाने पहचाने चेहरे, 
फिर टूटा, गिरा मुंह के बल,
जब अति का अपार हो गया, 
जब से एक युवा बेरोजगार प्रेमी हो गया

हर पाप,सज़ा,गाली,घृणा, 
फटकार का हकदार हो गया
जब से एक युवा बेरोजगार प्रेमी हो गया

ये सपने, ये मेहनत,एक घर,परिवार, 
मंज़िल, राहें,कांटे,तृष्णा,अतृप्ति,अधिकार, 
लड़ाई,संघर्ष,मात,आघात,उपहास, बेइज्जती, 
फिर अपनों का शिकार हो गया 
जब से एक युवा बेरोजगार प्रेमी हो गया

ये ताने बंद करो ,
झूठी मुस्काने बंद करो, 
मत करो तमाशा, 
मैं नश्वर हूं, 
सपने दिखाने बंद करो, 
बंद करो इस जज्बे के खेल को,
अहम को तृप्ति देती रेल को, 
ये जेब का वजन बहुत कमीना,
औरों से तोलता अपने मेल को, 
मेल, ये मेल मक्कार है, 
भेड़िये सा सवार है, 
जुझ रही है एक गौ, 
रोते रोते हंस रही है, 
सीख रही है जैसे तैसे वक़्त कस रहा है ताने ,
फिसल रहा है रेत की तरह, 
रिश्तों की तरह, अपनों की तरह, 
सपनों की तरह,पैसों की तरह,

©Dr Nirmal Meena
  #DARKNESSANDFIRE