एक दिन मैं, अपनी कविताओं में सब कुछ उल्टा-पुल्टा लिखूँगी.. नदियाँ नहीं जाएँगी सागर में समाहित होने..। सागर स्वयं,आएगा नदी के उद्गम तक उसको लिवाने..। आखिर, मिठास की चाहा उसे भी तो है ..!! धरा को, आकाश के ऊपर लिखूँगी..। आकाश तब, उचककर करेगा.. गगनचुंबी पर्वतों की चोटियों को चूमने का प्रयास..। वृक्षों पर डालकर झूला पाँव से,बादलों को छुऊँगी। ये वो दिन होगा.. जब मैं अपना, पहला चुंबन करूँगी। उस क्षण, मैं अपनी पलकें नहीं मुँदने दूँगी न ही थमने दूँगी,अपनी साँसें। मैं हो जाऊँगी,थोड़ी निर्लज्ज..। क्योंकि..तुम्हें स्वीकारने की प्रक्रिया में ये मेरा पहला..पड़ाव होगा। जिसका मैं.. जश्न मनाऊँगी।। एक दिन मैं, अपनी कविताओं में सब कुछ उल्टा-पुल्टा लिखूँगी.. नदियाँ नहीं जाएँगी सागर में समाहित होने..। सागर स्वयं,आएगा नदी के उद्गम तक उसको लिवाने..।