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कविता : भोगलिप्सा संकुचित है सोंच तेरी मानता तू क

कविता : भोगलिप्सा

संकुचित है सोंच तेरी मानता तू क्यों नहीं?
सुप्त सब इन्द्रियाँ तेरी जागता तू क्यों नहीं?
आ रही अवसान वेला ज़िंदगी के दिवस की।
मोह-लोभ के बंधनों को तोड़ता तू क्यों नहीं?

छोड़कर यह मोह-माया छोड़ दो यह घर यहाँ।
साथ मेरे ही चलो तुम चलता है रहबर जहाँ।
दीवार घर की स्वयं ही के स्वेद से की तर जहाँ?
हो गए बच्चे बड़े जब तो तुम्हारा घर कहाँ?

सारे जैविक औ अजैविक होते हैं नश्वर यहाँ?
नर्क या फ़िर स्वर्ग से जाओगे परे, पर कहाँ?
सड़ता वह जल ही है देखो जो वहीं ठहरा रहा।
रहता वही उज्ज्वल-अदूषित जो सदा बहता रहा।

भोगने की अति लिप्सा, पाँव कब्र लटका रहा?
देखो मानव मन यहाँ है वस्तुओं में ही फँसा?
वस्तुएं होती अगर न सोंचो ये जाता कहाँ?
मौत ग़र होती न सच तो ये ठहर पाता कहाँ?

                      - शैलेन्द्र राजपूत

©HINDI SAHITYA SAGAR
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