|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 9
|| श्री हरि: ||
4 - मनुष्य क्या कर सकता है?
'पशुपतिनाथ। मुझ अज्ञानीको मागे दिखाओ।' उस ठिगने किन्तु सुपुष्ट शरीर वृद्ध के नेत्र भर आये। उसके भव्य भाल पर कदाचित ही किसीने कभी चिन्ता की रेखा देखी हो। विपत्ति में भी हिमालय के समान अडिग यह गौरवर्ण छोटे नेत्र एवं कुछ चपटी नाक वाला नेपाली वीर आज कातर हो रहा है -'भगवान । मुझे कुछ नहीं सूझता कि क्या करूं। मनुष्य को तुम क्यों धर्मसंकट में डालते हो? तुम्हें पुकारना छोड़कर मनुष्य ऐसे समय में और क्या करे? तुम बताओ, मुझे क्या करना चाहिये हैं?'
आँसू की बुंदें चौड़ी हड्डी वाले सुदृढ़ कपोलों पर से लुढ़क कर उजली मूछों में उलझ गयी। अपनी हुंकार से वन के नृशंस व्याघ्र को भी कम्पित कर देने वाला वज्र-पुरुष आज बालक के समान रो रहा था। उसकी कठोर काया के भीतर इतना सुकोमल ह्रदय है - उससे परिचित प्रत्येक व्यक्ति इसे जानता है।