टुकड़ों में सरकता है दिन छाती पर लादे कोलाहल जिस्म रेंगता है, खड़ी दुपहरी सन्नाटा खर्राटे भरता है- कच्ची नींद रो देती है ..। -------------------------------- अंधेरा होता है जब, बिस्तर का रुख़ करती हूँ - पड़ा मिलता है ढेर चादर पर भुरभुराये तन का , पहले से ही .. बिस्तर तक पहुँचने में देर हो चुकी होती है ! मैं घट चुकी होती हूँ, बीते पहर ही । पूरी होने से पहले ही रात खट चुकी होती हूँ । ख़ुद तक पहुँचती हूँ जब तलक, बहुत देर हो चुकी होती है । मीनाक्षी ©Meenakshi #सृजनात्मा #srijanaatma