कलम के बदन पर भी ख़्वाईशे उग आई है सरपरस्ती बिस्तर में विलासता भोग आई है हमनें लेखकों में ग़ैरत फ़क़त इतनी देखी नंगाई ओढ़ी है सबने चापलूसी बिछाई है मुसाफ़िरों का सफ़र में तमाशा देखा दुआओं में साजिशें बिकती आई है आत्ममंथन क्या किसी की आत्मा का करें ज़िस्म की चाह में सबने ही बेच खाई है शौहरत में ये भूख भी ग़ज़ब की देखी सलीब पर कलम की लाश नज़र आई है सब को है मंज़िल की चाह यहाँ क़दमताल तालियां ही नज़र आई है निज़ाम ऐ हस्ती से क्या कोई बात करें हुक़ूमत एक मुद्दत से आतातायी है कलम क्या कर निज़ाम की सूरत बदले लेखकों को ही जब गुलामी रास आई है सरस्वती की क्या वो कोई लाज करें बिन पढ़े मृगतृष्णा की कलम मिटाई है वो जो कहते है मृगतृष्णा को तृष्णा की राह आईने को कभी सच्ची सूरत अपनी दिखाई है छोड़ "मृगतृष्णा" अब तेरे बस की बात नहीं अज़मत यहाँ इज़्ज़त को बेचकर आई है ©mrig_trish_naa #NojotoQuote मृगतृष्णा