चुपके..........से जिम्मेदारियों के बोझ से निकल गया ख़ामोश बचपन, चली गई अब कोमल हाथों की ये नर्मी,पीड़ा में अब उम्र हो गई पचपन, वो सर्द हवाओं सा बीता हर त्योहार,तनिक स्नेह मांगने को माँ-बाप लाचार, कैसा ये आधुनिकीकरण का दौर है,अब औलाद ने पहन ली विदेशी अचकन। समय सीमा : 21.01.2021 9:00 pm पंक्ति सीमा : 4 काव्य-ॲंजुरी में आपका स्वागत है। आइए, मिलकर कुछ नया लिखते हैं,