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Story of Sanjay Sinha कई कहानियां उबड़-खाबड़ रास

Story of Sanjay Sinha 
 कई कहानियां उबड़-खाबड़ रास्तों से होकर ही गुज़रती हैं। मेरी आज की कहानी भी मुझे उन्हीं रास्तों से गुजरती नज़र आ रही है। वज़ह? 
वज़ह हम खुद हैं। कई बार हम ज़िंदगी की सच्चाई से खुद को इतना दूर कर लेते हैं कि हमें सत्य का भान ही नहीं रहता। हम अपनी ही कहानी के निरीह पात्र बन जाते हैं।
अब आप सोच में पड़ गए होंगे कि संजय सिन्हा तो सीधे-सीधे कहानी शुरू कर देते हैं, भूमिका नहीं बांधते। फिर आज ऐसी क्या मजबूरी आ पड़ी जो अपनी कहानी को उबड़-खाबड़ रास्तों पर छोड़ कर खुद आराम से बैठ गए हैं, ये देखने के लिए आख़िर उनके परिजन इस कहानी को किस रूप में पढ़ रहे हैं। वैसे मैं चाहूं तो बहुत आराम से दो महीने पहले की उस सुबह को याद कर सकता हूं, जब जबलपुर में किसी ने मुझे नाश्ते पर बुलाया था और हमारे खासमखास Rajeev Chaturvedi जी अपनी होंडा सिटी गाड़ी में मुझे साथ लेकर निकले थे। उस दिन जबलपुर में मेरा पूरा दिन व्यस्त था और उसी दिन शाम को मेरी फ्लाइट दिल्ली के लिए थी। यूं समझ लीजिए कि एक-एक मिनट एकदम पैक था। 
हम होटल से अपने परिचित के घर के लिए निकले। करीब बीस मिनट में हम अपने मेजबान के घर के बाहर थे। मैं गाड़ी से नीचे उतरने ही वाला था कि राजीव चतुर्वेदी जी ने मुझे टोका, “संजय जी, ध्यान से उतरिएगा, बगल में खुली नाली है।”“खुली नाली? मैं चौंकने को चौंका था, पर असल में मैं चौंका नहीं था। मैं जबलपुर की अपनी पिछली सभी यात्राओं में इस बात पर मन ही मन हैरान होता रहा हूं कि लोगों के घर के सामने आख़िर नालियां खुली क्यों हैं, और लोग इसे सहते क्यों हैं? मैंने किसी से कुछ पूछा नहीं, किसी को टोका नहीं पर मैं जब कहीं भी जाता हूं तो इस तरह की छोटी-छोटी चीजें मुझे मन ही मन परेशान करने लगती हैं। इतना सुंदर घर है, पर सड़क किनारे नाली खुली हुई है। और कुछ न भी हो तो देखने में तो बुरा लगता ही है, बदबू तो आती ही है। 
मैं पहली बार जबलपुर कोई तीस साल पहले आया था। तब मैं भोपाल में कॉलेज की पढ़ाई कर रहा था और मेरे मामा की पोस्टिंग जबलपुर के बिजली विभाग में डीआईजी विजिलेंस के रूप में हुई थी। मैं जबलपुर आया था तो सड़कों पर ट्रैफिक बेतरतीब, बजबजाती नालियां देख कर गया था। सोचा नहीं था कि फिर कभी इस शहर में आऊंगा। पर ज़िंदगी संजय सिन्हा की कहानियों सी नहीं होतीं। वहां तो सबकुछ किस्मत के हाथ में होता है। किस्मत मुझे जबलपुर खींच कर ले गई। पहले एक बार, फिर दूसरी बार, फिर तीसरी बार और फिर सौ बार। 
मैं हर बार इस शहर में आता, लोगों से मिलता। यहां मेरा पूरा परिवार बन गया। मेरे उसी परिवार के एक सदस्य राजीव चतुर्वदी जी उस दिन मुझसे कह रहे थे कि संजय जी, ध्यान से नीचे उतरिएगा, नाली खुली है। मैंने कहा कि धन्यवाद, राजीव जी। मैं देख रहा हू। 
मैंने देखा कि राजीव जी मुझे खुली नाली के लिए टोकने के बाद मिनट भर के लिए किन्हीं यादों में खो गए थे। “क्या हुआ राजीव जी, गाड़ी से नीचे उतरिए। कहां खो गए?”“कुछ नहीं। ज़िंदगी की एक उबड़-खाबड़ कहानी याद आ गई। मेरे पिता ऐसे ही एक बार मेरे साथ गाड़ी में बैठे थे। मैं गाड़ी चला रहा था। मैंने ऐसे ही किसी के घर के बगल में गाड़ी खड़ी की थी। पिताजी नीचे उतरे और उनका पांव नाली में चला गया। वो खुद को संभाल नहीं पाए और गिर पड़े। उन्हें काफी चोट आई थी। अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था। फिर पिताजी ठीक नहीं हुए और इस संसार से चले गए।”
mukeshpoonia0051

Mukesh Poonia

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Story of Sanjay Sinha कई कहानियां उबड़-खाबड़ रास्तों से होकर ही गुज़रती हैं। मेरी आज की कहानी भी मुझे उन्हीं रास्तों से गुजरती नज़र आ रही है। वज़ह?  वज़ह हम खुद हैं। कई बार हम ज़िंदगी की सच्चाई से खुद को इतना दूर कर लेते हैं कि हमें सत्य का भान ही नहीं रहता। हम अपनी ही कहानी के निरीह पात्र बन जाते हैं। अब आप सोच में पड़ गए होंगे कि संजय सिन्हा तो सीधे-सीधे कहानी शुरू कर देते हैं, भूमिका नहीं बांधते। फिर आज ऐसी क्या मजबूरी आ पड़ी जो अपनी कहानी को उबड़-खाबड़ रास्तों पर छोड़ कर खुद आराम से बैठ गए हैं, ये देखने के लिए आख़िर उनके परिजन इस कहानी को किस रूप में पढ़ रहे हैं। वैसे मैं चाहूं तो बहुत आराम से दो महीने पहले की उस सुबह को याद कर सकता हूं, जब जबलपुर में किसी ने मुझे नाश्ते पर बुलाया था और हमारे खासमखास Rajeev Chaturvedi जी अपनी होंडा सिटी गाड़ी में मुझे साथ लेकर निकले थे। उस दिन जबलपुर में मेरा पूरा दिन व्यस्त था और उसी दिन शाम को मेरी फ्लाइट दिल्ली के लिए थी। यूं समझ लीजिए कि एक-एक मिनट एकदम पैक था।  हम होटल से अपने परिचित के घर के लिए निकले। करीब बीस मिनट में हम अपने मेजबान के घर के बाहर थे। मैं गाड़ी से नीचे उतरने ही वाला था कि राजीव चतुर्वेदी जी ने मुझे टोका, “संजय जी, ध्यान से उतरिएगा, बगल में खुली नाली है।”“खुली नाली? मैं चौंकने को चौंका था, पर असल में मैं चौंका नहीं था। मैं जबलपुर की अपनी पिछली सभी यात्राओं में इस बात पर मन ही मन हैरान होता रहा हूं कि लोगों के घर के सामने आख़िर नालियां खुली क्यों हैं, और लोग इसे सहते क्यों हैं? मैंने किसी से कुछ पूछा नहीं, किसी को टोका नहीं पर मैं जब कहीं भी जाता हूं तो इस तरह की छोटी-छोटी चीजें मुझे मन ही मन परेशान करने लगती हैं। इतना सुंदर घर है, पर सड़क किनारे नाली खुली हुई है। और कुछ न भी हो तो देखने में तो बुरा लगता ही है, बदबू तो आती ही है।  मैं पहली बार जबलपुर कोई तीस साल पहले आया था। तब मैं भोपाल में कॉलेज की पढ़ाई कर रहा था और मेरे मामा की पोस्टिंग जबलपुर के बिजली विभाग में डीआईजी विजिलेंस के रूप में हुई थी। मैं जबलपुर आया था तो सड़कों पर ट्रैफिक बेतरतीब, बजबजाती नालियां देख कर गया था। सोचा नहीं था कि फिर कभी इस शहर में आऊंगा। पर ज़िंदगी संजय सिन्हा की कहानियों सी नहीं होतीं। वहां तो सबकुछ किस्मत के हाथ में होता है। किस्मत मुझे जबलपुर खींच कर ले गई। पहले एक बार, फिर दूसरी बार, फिर तीसरी बार और फिर सौ बार।  मैं हर बार इस शहर में आता, लोगों से मिलता। यहां मेरा पूरा परिवार बन गया। मेरे उसी परिवार के एक सदस्य राजीव चतुर्वदी जी उस दिन मुझसे कह रहे थे कि संजय जी, ध्यान से नीचे उतरिएगा, नाली खुली है। मैंने कहा कि धन्यवाद, राजीव जी। मैं देख रहा हू।  मैंने देखा कि राजीव जी मुझे खुली नाली के लिए टोकने के बाद मिनट भर के लिए किन्हीं यादों में खो गए थे। “क्या हुआ राजीव जी, गाड़ी से नीचे उतरिए। कहां खो गए?”“कुछ नहीं। ज़िंदगी की एक उबड़-खाबड़ कहानी याद आ गई। मेरे पिता ऐसे ही एक बार मेरे साथ गाड़ी में बैठे थे। मैं गाड़ी चला रहा था। मैंने ऐसे ही किसी के घर के बगल में गाड़ी खड़ी की थी। पिताजी नीचे उतरे और उनका पांव नाली में चला गया। वो खुद को संभाल नहीं पाए और गिर पड़े। उन्हें काफी चोट आई थी। अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था। फिर पिताजी ठीक नहीं हुए और इस संसार से चले गए।” #News

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