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"ये हैं मेरी संजा बाई" "छोटी सी गाड़ी लुढ़कती जाय

"ये हैं मेरी संजा बाई"

"छोटी सी गाड़ी लुढ़कती जाय,
जेमे बैठी संजा बई,
घाघरो घमकाती जाए,
चुड़लो चमकाती जाए,
बई जी की नथनी झोला खाए,
बतई-बतई ने पीहर जाए।"

"कृपया अनुशीर्षक गौर से पढ़ें।" यह image मेरी phone gallary से यहाॅं आई है, ये मेरे और मेरी दीदी Radha Bairagi द्वारा बनाई गई संजा बाई है।

 यह गीत संजा बाई की आरती के बाद गाया जाता है, "छोटी सी गाड़ी लुढ़कती जाए जेमे बैठी संजा बाई घागरो घमकाती जाए चुड़लो चमकाती जाए बई जी की नथनी झोला खाए बतई-बतई ने पीहर जाए।" इस तरह के कई गीत गाएं जाते हैं।

आज मैं लिखने जा रही हूॅं मालवा और अन्य क्षेत्रों की प्रसिद्ध रीति के बारे में, जिसे पितृ पक्ष में मनाया जाता है। हमारे यहाॅं इसे संजा बाई कहते हैं। यह पर्व पितृपक्ष के दौरान मनाया जाता है और इसे एक तरह से व्रत भी माना जाता है, जो कुंवारी लड़कियाॅं अपने मायके में करती हैं और अपनी शादी के एक साल बाद यह करना बंद कर देती हैं। संजा बाई को माॅं पार्वती का स्वरूप और मालवा की बेटी माना गया है और कहा जाता है कि पितृपक्ष में पूरे साल भर में एक बार संजा बाई अपने मायके आती है यह पूरे सोलह दिन संजा बाई के मान मन्नौवल को समर्पित रहते हैं। इन दिनों में संजा बाई की पूजा एवं गीत गायन संध्या के समय छोटी बालिकाओं और लड़कियों द्वारा किया जाता है।

पूरे सोलह दिनों में गोबर से दीवारों पर मांडने बनाए जाते हैं, जिन्हें संजा बाई कहा जाता है। आजकल यह प्रथा लुप्त सी हो रही है क्योंकि गोबर जैसे बदबूदार पदार्थ को हाथ कौन लगाएगा और अपनी सुंदर सी दीवारों को कोई गंदा भी नहीं करना चाहता। लेकिन कहीं-कहीं गाॅंव में यह आज भी  प्रचलित है। संजा के समय गोबर से पितृपक्ष की पहले दिन यानि पढ़वा से लेकर अमावस्या तक अलग-अलग तरह की चीजें बनाई जाती है। पित्र पक्ष के ग्यारहवें दिन तक संख्यामान चीजें बनाई जाती है जिन का श्रृंगार फूल कुमकुम गुलाल और चमकीले कागजों से किया जाता है, संजा के मुॅंह के साथ उनके भाई चाॅंद-सूरज और तारों के साथ बनाए जाते हैं। पितृपक्ष क ग्यारहवें दिन से संजा बाई को वापस अपने घर पहुॅंचाने की तैयारी की जाती है। ग्यारहवें दिन से दीवारों पर डोली और दहेज का पूरा सामान बनाया जाता है, जैसे कि हाथी,घोड़ा, ऊंट, डोली शृंगार के सारे सामान और जैसे दहेज बेटी को दिया जाता है मालवा में पूरा रसोई का सामान और इस तरीके से गोबर की पतली लकीरों के अंदर पूरा गृहस्ती और पूरा दहेज तैयार किया जाता है जिसे कोट कहा जाता है।
"ये हैं मेरी संजा बाई"

"छोटी सी गाड़ी लुढ़कती जाय,
जेमे बैठी संजा बई,
घाघरो घमकाती जाए,
चुड़लो चमकाती जाए,
बई जी की नथनी झोला खाए,
बतई-बतई ने पीहर जाए।"

"कृपया अनुशीर्षक गौर से पढ़ें।" यह image मेरी phone gallary से यहाॅं आई है, ये मेरे और मेरी दीदी Radha Bairagi द्वारा बनाई गई संजा बाई है।

 यह गीत संजा बाई की आरती के बाद गाया जाता है, "छोटी सी गाड़ी लुढ़कती जाए जेमे बैठी संजा बाई घागरो घमकाती जाए चुड़लो चमकाती जाए बई जी की नथनी झोला खाए बतई-बतई ने पीहर जाए।" इस तरह के कई गीत गाएं जाते हैं।

आज मैं लिखने जा रही हूॅं मालवा और अन्य क्षेत्रों की प्रसिद्ध रीति के बारे में, जिसे पितृ पक्ष में मनाया जाता है। हमारे यहाॅं इसे संजा बाई कहते हैं। यह पर्व पितृपक्ष के दौरान मनाया जाता है और इसे एक तरह से व्रत भी माना जाता है, जो कुंवारी लड़कियाॅं अपने मायके में करती हैं और अपनी शादी के एक साल बाद यह करना बंद कर देती हैं। संजा बाई को माॅं पार्वती का स्वरूप और मालवा की बेटी माना गया है और कहा जाता है कि पितृपक्ष में पूरे साल भर में एक बार संजा बाई अपने मायके आती है यह पूरे सोलह दिन संजा बाई के मान मन्नौवल को समर्पित रहते हैं। इन दिनों में संजा बाई की पूजा एवं गीत गायन संध्या के समय छोटी बालिकाओं और लड़कियों द्वारा किया जाता है।

पूरे सोलह दिनों में गोबर से दीवारों पर मांडने बनाए जाते हैं, जिन्हें संजा बाई कहा जाता है। आजकल यह प्रथा लुप्त सी हो रही है क्योंकि गोबर जैसे बदबूदार पदार्थ को हाथ कौन लगाएगा और अपनी सुंदर सी दीवारों को कोई गंदा भी नहीं करना चाहता। लेकिन कहीं-कहीं गाॅंव में यह आज भी  प्रचलित है। संजा के समय गोबर से पितृपक्ष की पहले दिन यानि पढ़वा से लेकर अमावस्या तक अलग-अलग तरह की चीजें बनाई जाती है। पित्र पक्ष के ग्यारहवें दिन तक संख्यामान चीजें बनाई जाती है जिन का श्रृंगार फूल कुमकुम गुलाल और चमकीले कागजों से किया जाता है, संजा के मुॅंह के साथ उनके भाई चाॅंद-सूरज और तारों के साथ बनाए जाते हैं। पितृपक्ष क ग्यारहवें दिन से संजा बाई को वापस अपने घर पहुॅंचाने की तैयारी की जाती है। ग्यारहवें दिन से दीवारों पर डोली और दहेज का पूरा सामान बनाया जाता है, जैसे कि हाथी,घोड़ा, ऊंट, डोली शृंगार के सारे सामान और जैसे दहेज बेटी को दिया जाता है मालवा में पूरा रसोई का सामान और इस तरीके से गोबर की पतली लकीरों के अंदर पूरा गृहस्ती और पूरा दहेज तैयार किया जाता है जिसे कोट कहा जाता है।