नन्हे सम्राट के अप्रैल अंक में मेरी कहानी - "दादाजी" घर भर में मानों भूचाल आ गया था I बचपन में चाचा चौधरी की कॉमिक्स में पढ़ा था कि जब साबू को गुस्सा आता है तो कहीं ज्वालामुखी फ़ट जाता है, वैसा ही हाल कुछ आजकल मेरे घर पर हो रहा था I वजह थी मेरे दादाजी .... जब दादाजी को जरा सा जुखाम भी आ जाता था, तो वो चीख-चीख कर पूरे घर को सर पर उठा लेते थे,पर इस बार तो जैसे क़यामत ही आ गई थी I उन्हें पूरे सौ डिग्री बुख़ार आ गया था I आस पड़ोस से लेकर दूधवाले, दहीवाले , बिजलीवाले , पोस्टमैन , धोबी और उनके संपर्क में आने वाला शायद ही कोई व्यक्ति इस ख़बर से अनजान रहा होगा I अब सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी मेरी, क्योंकि दादाजी मुझे बहुत प्यार करते थे, इसलिए सर्दी की छुट्टियों में मेरी ही ड्यूटी अपने कमरे में लगवा ली I मैं मन ही मन बहुत कुनमुनाया कि दादाजी को भी मेरी छुट्टियों में ही बीमार पड़ना था I मैंने अपने दोस्तों के यहाँ जाने के लिए लाख बहाने किये पर दादाजी ने मुझे अपने पास बैठने की सख़्त हिदायत दी थी और जिसे काटने की हिम्मत जब पिताजी को भी नहीं थी तो मेरी क्या बिसात I अगली सुबह जब अखबार वाले ने अखबार फेंका तो दादाजी ने चौकन्ने हो कर पूछा -" अरे इस तिवारी को क्या तुमने मेरी तबीयत के बारे में नहीं बताया ?" मैं कुनमुनाते हुए आधी नींद से जाग कर बोला-" दादा जी, कल तो बताया था I" "तो फ़िर, उसकी इतनी हिम्मत कि वो बिना मेरा हाल चाल लिए ही अखबार बालकनी में फेंक कर चला जाए ?अरे आख़िर सुख-दुख में आदमी -आदमी के काम नहीं आएगा तो भला कौन आएगा ?" दादाजी के ये क्राँतिकारी विचार सुनते ही मैं समझ गया कि अब दूसरे दिन बेचारे तिवारी अंकल की खैर नहीं है I