व्यक्ति का कर्म ही भाग्य का निर्माण करता है। भविष्य में प्राप्त होने वाले कर्म-फल को ही भाग्य कहा जाता है। पिछले संचित कर्मो के फल, जो वर्तमान में भोगे जाते हैं, उन्हे प्रारब्ध कहते हैं। जीव ही सारे कर्म करता है और उनके फल भोगता है। जीव स्वयं में क्या है ईश्वर का अंश है। अत: सैद्धान्तिक दृष्टि से ईश्वर ही कर्ता है और भोक्ता भी है। मानव जीवन का कर्ता रूप है और शेष योनियां भोक्ता रूप होती हैं। अत: कर्म के सारे सिद्धान्त केवल मानव जीवन पर ही लागू होते हैं। जीवन कर्म से कभी मुक्त भी नहीं हो सकता। यह तो जीवन का पर्याय है। कर्म होगा तो फल भी मिलेगा। फल आने पर ही कर्म की समाप्ति होती है।..... कर्म का क्षेत्र उतना ही बडा है जितना कि एक सौ वर्ष का जीवन काल। कर्म ही मानव जीवन का मूल आधार भी है। पर्याय भी कह सकते हैं। हर कर्म का भी तो कुछ आधार होना चाहिए। कर्म का आधार होता है कामना। मन में कामना उठेगी, तभी तो व्यक्ति कर्म करने को प्रेरित होता है। इच्छा के बिना भी कुछ कर्म होते हैं। ये प्राकृतिक कर्म होते हैं। आहार, निद्रा, विसर्जन आदि प्राकृतिक कर्म हैं। शरीर धारण किए रहने के लिए आवश्यक होते हैं। शरीर संचालन के लिए श्वास-प्रश्वास, धडकन, तापमान आदि शरीर के कर्म भी प्राकृतिक कर्म ही हैं। शरीर को निरोग रखने के लिए भी शरीर नित्य कर्म करता रहता है। कामना से जुडे कर्म इनसे भिन्न होते हैं। कामना ही क्षुधा कहलाती है, जिसे व्यक्ति तृप्त करना चाहता है। यही जीवन में माया का प्रवेश द्वार है। वही कामना पैदा करती है। जीवन को कामना के माध्यम से माया ही चलाती है। व्यक्ति कहता तो है कि वह अपनी मर्जी से जीता है ; किन्तु यह भी सच है कि वह अपने मन में कामना पैदा नहीं कर सकता। उसकी मर्जी कामना पूरी करने या न करने तक सीमित है। प्रकृति को ही माया कहते हैं। हमारा मन, हमारी बुद्धि प्रकृति (त्रिगुण) से आवरित रहती है। उसी के अनुरूप मन में इच्छा पैदा होती है। उसी के अनुरूप बुद्धि मार्ग-दर्शन करती है। माया आत्मा के निर्माण के साथ ही जुड जाती है। हर जन्म और हर योनि में प्रकृति साथ रहती है। पिछले सारे कर्मो का लेखा-जोखा देखकर, कर्म-फल के अनुरूप हमारे मन में इच्छा पैदा करने का काम माया का है। हमने किसी को देखा, सुन्दर लगा। आगे चल दिए। फिर किसी को देखा और पांव ठिठक गए। कोई पिछला हिसाब इसके साथ बाकी रहा होगा। वरना यहां से भी आगे चले जाते। इसके भीतर बैठी आत्मा को दृष्टा की आत्मा ने पहचाना। राग-द्वेष, मैत्री-शत्रुता आदि का अवसर मिलते ही, प्रकटीकरण हो गया। और फिर आगे बढ गए। यह सारी इच्छाएं प्रारब्ध से जुडी थीं। स्वयं व्यक्ति का बडा योग इसमें नहीं होता। हमारे सौ साल के कलैण्डर में प्रारब्ध साथ ही रहता है। व्यक्ति की उम्र का कारक भी प्रारब्ध ही होता है। शरीर के साथ पिछली पीढियों के भी कुछ कर्म-फल हमें प्रारब्ध के रूप में प्राप्त होते हैं। पुरूष को पुरूष पीढियों से, नारी को अपनी नारी पीढियों से, कुछ इष्ट मित्रों से। जीव के साथ प्रारब्ध अनेक पीढियों से चलता ही रहता है। हमारा सबका पिता सूर्य है। वहीं से सृष्टि की शुरूआत भी है। क्रमसः .......😊#beena ji