अतुकान्त कविता - सामंजस्य! कभी कभी न जाने क्या हो जाता है तुम्हे, बिन वजह के खड़ा कर देती हो बबाल। समझती ज्यों नहीं? ये घर है! अनसुनी करना तुम्हारी आदतों में सामिल होने लगा है अब। मान क्यों नहीं लेतीं? ये मायका नहीं है ये ससुराल है। बच्चे पर गुस्सा उतारना आंखे, भौंहें चढ़ाना रूठ कर गुमशुम बैठना ये सब क्या करती रहती हो? मां! वो मां है। वो कुछ भी कहदे तो सुनो,समझो न कि जवाब दो। पर नहीं तुम्हें तो कुछ समझना ही नहीं है। कितना अखरता है मुझे ये सब कभी सोंचती हो? ये जंगल नहीं है जहां एक को मारकर दूसरा जीने लगेगा। नहीं भाता मुझे तुमसे झगड़ना,डांटना शाम को थककर आने के बाद। जरा समझो! तुम और सब दोनों में पिस जाता हूं निरपराध केवल सामंजस्य लाने हेतु। ✍अभिषेक ठाकुर