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एक बेघर जो सर्दी से काँप रहा था मैला कम्बल ओढ़े अला

एक बेघर जो सर्दी से काँप रहा था
मैला कम्बल ओढ़े अलाव ताप रहा था

चोट का निशान तों नहीं था उसपर
शायद दिल के जख्मो से विलाप रहा था

कोई भिकारी कहता तो कोई पागल 
पता नहीं खुद पर क्या क्या छाप रहा था

रोज ताने सुनता आते - जाते लोगों से
खामोश रहकर हर किसी को भाँप रहा था

कभी ये शहर कभी वों शहर जाने कहाँ कहाँ 
भटकते - भटकते जिंदगी को नाप रहा था

बहुत करीब से देख ली थी उसने दुनियाँ 
हर घड़ी बस मौत - मौत जाँप रहा था

औलाद ही उसकी बेरहम निकली 
वों तों एक अच्छा बाप रहा था

बेदखल कर दिया उसे बोझ समझकर
रों रों कर सबसे यही अलाप रहा था

©mahendra babu almora
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