"मैं" और मेरा मुज़रिम एक रोज़ मिले कहीं , मैं खड़ा था बहुत से सवालों के साथ । सच और झूठ के फ़ासलो को जानने के लिए , बहुत से अरमानों के साथ । बड़ी ही तैश में था ,की पता नही क्या कर बैठूं , उस से बदला लूँ अपने ज़ख्मो का ? या चुपचाप वही बैठूं । मैं समझूँ उसकी बातों को, उस के मनसूबों को । कि आख़िर वजह क्या थी मुझे सताने की , क्या उसने कसम खायी थी मुझे मिटाने की । समय बीता मगर हम वही खामोश यूँ ही थे , थी प्रश्नों की बड़ी जमघट मग़र बेहोश यूँ ही थे । "अचानक एक पत्थर से मेरा शीशा वही टूटा , उसी क्षण से मेरा मुज़रिम भी मेरे हाथ से छूटा ।" तन्हा ज़िन्दगी