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मेरा वसीला दार-ए-बा-दीवार एक ही दरीचे से, निफालता

मेरा वसीला दार-ए-बा-दीवार एक ही दरीचे से, 
निफालता सादगीयत-ओ-नज़ाकत की तन्क़ीद !

कुछ तर्सील देता अपनी साफ़-गो झलकियों में, 
जोहती उन खुसरो अदाओं को पीछे पर्दों के!

उसका नक़ीब बन करता दलाइलें बा'द उज्र, 
पोशिश रिवाज़ों पर गिरह बस सादा बंदा मैं!

©Viraaj Sisodiya
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