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मन की उत्पत्ति और प्रलय ***************

     मन की उत्पत्ति और प्रलय
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   मन को हमें संसार में प्रकृति मिला हुआ।
   एक उपहार ही समझना चाहिए ।
क्योंकि यह जन्म के बाद  ही खुद अपना,
एक सुत पुत्र के रुप में परिचय देता है।
       इसलिए यह एक महान योद्धा भी होता है ।
     यह करण कि तरह प्राकृतिक रुप में,
   प्रकति पुत्र रुप का एक गुण भी हैं और
 वैसे अनेकों अवगुणों को बढ़ावा भी देता है‌‌ ।
एक मन ही।
      विपरित परिस्थितियों जैसे कि अहम के बल पर ।
 हे परमत्तव अंश।
        मन की तीनों लोकों में केवल पृथ्वी लोक पर ही,
        मन की प्राथमिकता होती है हे परमत्तव अंश जी ।
      मन‌ ही समस्त संसार को मोहित भी करने वाला है।
     और मन के ही वास्तविक ज्ञान से दो ही मार्गं होते है।
       1.एक सांसारिक रुप जीवन के मोह में जाना।
       2.अलौकिक रुप जीवन के मोह में जाना।
       1.एक मार्ग आपको अधोगति में लेकर जाता है ।
      2. दुसरा मार्ग आपका उद्धार करने वाला होता है ।
      अब यही से अपनें शरीर रूपी में पांच तत्वों 
को समझना शुरू कर देना चाहिए ।
       जो पांच पाण्डव रुप में जीवत है आपके शरीर में पंचतत्व।
     यह श्री गीता जी के छठे श्लोक का गुप्त रहस्य भाव है।

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