कलम बनाम व्यापार (बुंदेली व्यंग) अपने करम न देख सके, बड़ी मूछन के एक सेठ। जो तुमपे सवाल उठाए सो,ऊखो खरीद लियो सेठ।। चाकरी करत सरकारें हैं, धोत–धोती चौथो खम्भ। लोकतंत्र की आत्मा अब , काए बन बैठी स्तंभ।। न्यायपीठ गांधारी बन गई, लिबरल साधे मौन। अच्छे दिनो की आस में, अच्छो ढूंढे कौन।। दाढ़ी बढ़ाए का होए , जब घट जाए सम्मान। दाने दाने को तरस रहो ,देश में अन्नदाता महान।। जात पात में बिदा रहे, युवा होत दिशा हीन। सफेद टोपी के नीचे, एक फिलम चले रंगीन।। कछु सजग है ई कुराचार से, होत हर रोज हैरान। आए दिना फिर बिक रही, बची पुरानी धान।। जो सच खा सच बोल दए, ऊ होत बदनाम। जो कहबे हां जू –हां जू, बेई सच्चे गुलाम।। बेड़ी बंधी कलम पे, चर रई हरो नोट। पूंजीपति के आंगन में, सरकार मांगे बोट ।। अलख अबे भी जल रही ,कछु लोगन के भीत। फिर आइना दिखा रहे, जिनके "रवि है ईश"।। ©susheel sk #रवीश_कुमार #government