गज़ल जलाकर खुद आशियां अपना दर-बदर हो गए तोड़ कर रिश्ते नाते गमों से सर-बसर हो गए । देकर वो तन्हाई का जख्म जो तुम तड़पाते रहे ,, वो जख्म मेरे मासूम दिल के नासुर हो गए । अपनी गलतियों का उसे कुछ भी तो एहसास नहीं, इसलिए तो आप सभी की नजरो से दुर हो गए । लबो पर तिश्नगी लिए हर दरिया के किनारे गया , मगर इन लबों पे तिश्नगी वापस रहगुजर हो गए । इस दर्द-ए-दिल की दबा लाऊं कहाँ से ऐ गौहर , अब शायद हर दवा भी मुझपे बेअसर हो गए । -मो.तबरेज आलम गौहर सोच साहित्यिक पत्रिका ( संस्थापक/ सम्पादक )