रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है रात ख़ामोश है रोती नहीं हँसती भी नहीं कांच का नीला सा गुम्बद है, उड़ा जाता है ख़ाली-ख़ाली कोई बजरा सा बहा जाता है आहटों से कुछ छाप सी छोड़ जाती है सरसरी से ख़ामोशी का सिक्का चुराती है और हवाओं का नमदा बिछा रहता है सायों का आसेब फीका रह जाता है जमघट लगा है ख्वाबों का ड्योढ़ी पर इक बार सोचता हूँ पसरने दूँ खामोश रहता है ये मन मेरा कहीं रैन से आगे बसेरा न बन जाए चाँद की चिकनी डली है कि घुली जाती है और सन्नाटों की इक धूल सी उड़ी जाती है काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता है - CalmKazi और गुलज़ार #तज़मीन गुलज़ार साब की 8 पंक्तियों के बीच अपनी दो नज़्मों से लुका छुपी खेल रहा हूँ । इस कवि के अस्तित्व में अगर किसी भी हस्ती का हाथ है तो वो गुलज़ार साब हैं । शोभा ख़राब की है उनके लफ़्ज़ों की थोड़ी । (1st and 4th Stanza is his) inspired by Sudhanshu sir and Ayena ma'am #CalmKaziWrites #YQBaba #YQDidi #hindi #nazm #poetry #night #Gulzaar #Description #Moonlight #Imagery #हिंदी #कविता #नज़्म #रात #देखिये #गुलज़ार #तज़मीन