।।श्री हरिः।।
33 - यह अर्चक
कभी कोई ऋषि-मुनि वन में भी आ जाते हैं। वैसे नन्द भवन में तो ये आते ही रहते हैं। बाबा, मैया इन लोगों की बडी श्रद्धा से पूजा करते हैं। कन्हाई सम्भवतः यही देख-देखकर ऋषियों की अर्चा करना सीख गया है।
कोई ऋषि वन में आ जायें तो यह चपल सहसा गम्भीर हो जाता है। सभी गोपकुमार श्रद्धालु हैं। ऋषि-मुनियों को प्रणाम करने में उनकी सेवा-पूजा करने में सब उत्साह रखते हैं; किंतु यह काम कन्हाई से जैसा उत्तम बनता है, दूसरों से तो नहीं बनता। इसलिये ऐसे समय यह स्वयं अग्रणी बन जाता है। दाऊ दादा भी इसी को आगे कर देता है।
केवल मधुमंगल मौजी है। वह ब्राह्मण कुमार है और उसे जाने कितने मन्त्र-स्तोत्र आते हैं। अत्त: कुछ ठिकाना नहीं रहता कि किसी ऋषि के आने पर वह उन्हें प्रणिपात करके कन्हाई की पूजा में स्वतः सिद्ध पुरोहित बन जायेगा - मन्त्र बोलने लगेगा अथवा ऋषि के समीप इनके बराबर जा बैठेगा। वह तो अनेक बार बड़े पण्डितों के समान आने वाले से शास्त्रार्थ करने लगता है। तब वह क्या कहता है, भोले गोपकुमार कैसे समझें; किंतु कोई ऋषि मधुमंगल से कभी अप्रसन्न नहीं होता। सब उसे आदर से पास ही बैठाना चाहते हैं।