|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 11
।।श्री हरिः।।
12 - स्नेह जलता है
'अच्छा तुम आ गये?' माता के इन शब्दों को आप चाहें तो आशीर्वाद कह सकते हैं; किंतु कोई उत्साह नहीं था इनके उच्चारण में। उसने अपनी पीठ की छोटी गठरी एक ओर रखकर माता के चरण छुये और तब थका हुआ एक ओर भूमि पर ही बैठ गया।
'माँ मुझे देखते ही दौड़ पड़ेगी। दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से चिपका लेगी। वह रोयेगी और इतने दिनों तक न आने के लिये उलाहने देगी।' वर्षों से पता नहीं क्या-क्या आशाएँ उमंगें, कल्पनाएँ मन में पाले हुए था वह। 'मैं माँ के पैर छूऊँगा। अपने हाथों उसके नेत्र पोंछूंगा। उसे मनाऊँगा। वह बड़े स्नेह से मेरी एक-एक बात पूछेगी। मेरे लिये दौड़ेगी स्वयं चाय बनाने और मैं उसे मना करूंगा।' जाने कितनी बातें......। लेकिन क्यों वह ऐसी आशा करता था? वह कौन-सी सम्पत्ति लेकर घर लौटा है कि उसका स्वागत हो, उसे स्नेह मिले। वह भड़कीले कपड़ों में आता, सबके लिए सुंदर उपहार लाता, चमकते जूते का मच-मच शब्द करता द्वार में प्रवेश करता - अवश्य उसका स्वागत होता। वह मैले फटे-चिथड़े लपेटे, नंगे पैर, पीला-पीला चेहरा, रोग से दुर्बल शरीर लिए मनहूसी की मूर्ति बना आया है। घर में अन्न नहीं है, इस वर्ष का लगान दिया नहीं गया, बच्चों के शरीर पर भी वस्त्र नहीं और सबकी जिस पर आशा अटकी थी, वही स्वयं भिक्षुक सा बना आ पहुँचा है। घर की समस्याएँ ही क्या कम हैं, अपना ही दुख, अपना ही अभाव क्या छोटा है? और ऐसी अवस्था में जब वह भी एक प्राणी की रोटी का भार बढाने ही अाया है - घरवालों के सारे अभाव, सारे कलेश जैसे आज नये हो उठे हैं। क्षोभ ऐसे बढ गया है, जैसे पके घाव पर ठोकर लग गयी हो। उसका स्वागत? सब गुमसुम हैं, सब नेत्रों एवं चेष्टाओं से ही उपेक्षा व्यक्त करते हैं; कोई घर से निकल जाने को नहीं कहता, यही क्या कम है।