अजीब है ये बारिश का मौसम भी बुझते शोलों को फिर जला दिया धुंधले हो चले थे जो सिलसिले नन्ही बूंदों ने उन्हें फिर जगा दिया हवा के ठंडे झोंकों ने फिर छेड़ी है जुस्तजू अरमानो की बुझती लौ को जवां कर दिया एक चेहरा जिसे भूल गया था बूंदों के अक्स ने फिर दिखा दिया बड़े सुकून से अब रहने लगा था न कोई ख़ुशी न ही कोई ग़म था आज ज़रा क्या भीग गया बारिश में उन ज़ख्मों को फिर से हरा कर दिया अजीब है ये बारिश का मौसम भी बुझते शोलों को फिर जला दिया....