कोफ्त दिल से जुबां से आह निकली जा रही है ज़िंदगी क्यूं हाथों से सरे राह निकली जा रही है आया ये मौसम कैसा हाशिये पे सांस दर सांस है जिस्म से जान की देखो चाह निकली जा रही है बन गया है वक़्त भी पहलू में अचानक से मेहमाँ थामने पर भी लम्हों की बांह निकली जा रही है कि अब तो अगले ख्याल के ख्याल से भी है डर है तलाश क्या ओ कहां निगाह निकली जा रही है सोचा न था के दिनों में दिखेगी शबों की स्याही यूं न जाने कहाँ उजालों की पनाह निकली जा रही है इतने पर भी अगर हो जाए ये इल्म तो अच्छा है रोक लो साँसों की जो परवाह निकली जा रही है ©Vishal Sharma #take_care