आबो हवा बदल रही है घर अब घर नहीं लगता। चमकते फर्श दीवारें बड़े मगरूर दिखते हैं मुनासिब है मकां कहना के घर अब घर नहीं लगता। न रोटी मां के हाथों की न वो आवाज़ आती है चले आओ के रोटी की खुशबू अब बुलाती है अमीरी में फकीरी है वो आलम अब नहीं लगता के घर अब घर नहीं लगता। बडे मशरूफ हैं सारे कोई बातें नहीं करता सभी की अपनी ही धुन है किसी की कोई नहीं सुनता। तकाजे वक्त के हैं सब के घर अब घर नहीं लगता। सभी की उलझनें अपनी सुनाने की न चाहत है जमाने वो अलग से थे दिलों में बादशाहत थी सुकून अहसास होता था कोई गम बांट लेता था अकेलापन सताता है के घर अब घर नहीं लगता। प्रीति #बदलाव#परिवेश #व्यस्तता # लाचारी Yqdidi Rachita