जो चलते थे कभी साया बनकर आज बदले बदले से लगते हैं क्या बदलना जरूरी है आखिर क्यों लोग ये बदलते है ? क्या मोल रह जाता है जज्बातों का शहर में बोलो कल मिले थे जो अज़ीज़ बनकर आज भूलने लगते हैं! कहानी नहीं है ये कोई हकीकत का हिस्सा है लिख रहा हूं मैं मगर किसी और का किस्सा है! क्या मिलता है तोड़कर यकीं किसी अपने का ये कौन सा रास्ता है जिस ओर सभी चलने लगते हैं! मैं गांव में जब रहता था वहां का एक रिवाज़ था बच्चे बड़ों के पीछे मिलों तलक संग चलते थे! आज के चर्चे किसी से छिपे हुए तो हैं नहीं आज अपने ही अपनों को पहचानने से मुकरने लगते हैं! रब ही संभाले ऐसे लोगों की कश्ती को यहां जो बिना यकीं के सागर में कदम रखते हैं! ज़रा फूंक कर है रखिए अपने पैरों को यारों.. सुना है यहां अपने ही अपनों से जलने लगते हैं! #ज़िंदगी_का_आइना #वास्तविक #प्रमाणिक #अभिव्यक्ति #शायरी