दुर्जन से मित्रता और शत्रुता दोनों ही कष्टप्रद ...... सुभाषित " दुर्जनेन समं सख्यं द्वेषम चापि न कारयेत | उष्णो दहति चान्गारः शीतः कृष्णायते करम || " अर्थात - " दुर्जन व्यक्ति से न तो मित्रता करनी चाहिए , न शत्रुता ही | जिस प्रकार ज्वलंत अंगारे को स्पर्श करने से वह हाथ को जलाती है तथा बुझने के पश्चात् उसको स्पर्श करने से वह हाथ को काला कर देती है , ठीक उसी प्रकार दुर्जन की मित्रता अनापेक्षित दुष्परिणामों को तथा उसकी शत्रुता विविध कुपरिणामों को उत्पन्न कर मनुष्य को कष्ट देती है दुर्जन से दूरी का शास्रीय माप