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नस्ल-ए-आदम का खूं बहाते हो, ख़ुद को इंसान फिर बतात

नस्ल-ए-आदम का खूं बहाते हो,
ख़ुद को इंसान फिर बताते हो!

शर्म आती है देख कर तुमको
तुम मुसलमां हो ! जुल्म ढाते हो!

ओढ़कर मज़हबी क़बा सिर पे
ख़ुदपरस्ती में सर झुकाते हो।

अम्न इंसानियत के मज़हब की
झूठी ताबीरें लेके आते हो।

हो गुनहगार तुम ही मिल्लत के
ख़ुद ही रुसवाइयां कराते हो।

बुग़्ज़, नफ़रत, हसद, अना दिल मे
इन बुतों को ख़ुदा बनाते हो।

©Aliem U. Khan
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