एक राही था चहलता पूर्ण चंद्रामयी रात्रि के जवल से भीनती सी सर्द बाहें पकड़ वायु के थपेड़ों की... चीरता पथ कालिमा को तृण समानादित्य की लिन बूँदनी किरणों से जो रम सांतभावी ग्रन्थियों में दहक बीजित थी... "एक राही" एक अनोखी रचना जिसके मूल का पता लगाने की ज़रूरत है। पंक्तियों के इस समूह की प्रेरणा मुझे एक साथ 2 स्त्रोतों से प्राप्त हुई। आज दोपहर के भोजन के पश्चात बस ज़रा से देर के लिए मेरी आँख लग गयी थी। कुछ समय ही बीता था कि मैं स्वप्न में विचरने लगा। और फ़िर, आधी नींद की उस अवस्था में मैंने स्वयं को कई शब्दों के बीच घिरा हुआ पाया।