मृत्यु ... है जहाँ भी ज़िन्दगी ये, फिर वही पे मौत है। ज़िन्दगी के संग मौत, ज़िन्दगी की सौत है। आज कलियाँ जो खिली है, कल सिकुड जायेगी। ये बहारें पतझडों में, खुद ही मुड जायेगी। गंध गुलों में घुली जो, पल में उड जायेगी। आत्मा परमात्मा से, यूँ ही जुड जायेगी। दीप के तलें अंधेरा, दीप से ही ज्योत है। है जहाँ भी जिन्दगी ये, फिर वही पे मौत है। धूप में जो रूप खिलता, ढल गया वो छांव में। तैरना जो जानता था, वो ही डूबा नांव में। सुख सदा ही दोनों में, बहाव में- ठहराव में। सत्य को पहचान पायें, आखिरी पडाव में। साँसों के समीकरण में, मरण ओतप्रोत है। है जहा भी ज़िन्दगी ये, फिर वही पे मौत है। मन को भाती लहरें थी जो, काल का कहर बनी। प्राणवायु ये पवन ही, आज बवंडर बनी। जिस धरा ने पाला-पोसा, वो ही भयंकर बनी। स्वर्ण जैसी काया पल में, खंडहर जर्जर बनी। अन्त में उड़ना सभी को, रूह तो कपोत है। है जहा भी ज़िन्दगी ये, फिर वही पे मौत है ©purvarth #mrityu