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जहां धरा गगन को छूने निकले कण कण में देवी देव बसे!

जहां धरा गगन को छूने निकले कण कण में देवी देव बसे!

हम उस भूमी के सेवक है जहां नारायण, महादेव बसे!

जहां द्वार स्वयं हो नारायण का, गोमुख से निकली गंगा हो,

जहां वीर भड़ों की गाथा पर बजता ढोल मृदंगा हो!


जहां काफल की डाली पर न्योली चैत का गीत सुनाती हो,

जहां लाल बुरांश के फूलों पर मधुमक्खी राग रीझाती हो

जहां अरसा रोटना, च्यूड़ा बुखड़ा, तीज त्यौहार सजाता हो, 

जहां फुलदेई, घोघा की डोली, गढ़वाल कुमाऊँ मिलाता हो!

हम उस धरती से आते है जो उत्तराखण्ड कहलाता हो!


जहां औंस सग्रान हो नंदा की पाती ध्याण की दिलाती हो!

जहां ऋतु बसंत में पेड़ों पर मौल्यार फुलार लगाती हो,

जहां ढोल दमौं की थापों पर पांडवों की लीला होती हो,

जहां पानी के गदरों में भी घट की पनचक्की चलती हो!

जहां ब्रह्मकौंव अर फ्योंलि के फूल डांडी कांठी महकाता हो!

हम उस धरती से आते है जो उत्तराखण्ड कहलाता हो!


गौरव है यहां चार धाम शोभा है पंच प्रयाग यहां!

अपनत्व जहां गढ़वाली है और प्रेम कुमाऊँनी बोल जहां

पंच बद्री और पंच केदार संस्कृति जहां धरोहर है!

उस वात्सल्य से सिंचती दुनिया जो स्वर्ग स्वयं कहलाता हो!

हम उा धरती से आते है जो उत्तराखण्ड कहलाता हो!



        सौरभ कुमार "गाँगुली "

©सौरभ कुमार "गाँगुली"
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