|| श्री हरि: ||
54 - प्रेम
'दादा।' यह कनूं अपने दादा को सदा सकारण ही पुकारे, ऐसा कुछ नहीं है। इसका तो यह एक स्वभाव हो गया है। सोते में भी यह अनेक बार 'दादा, दादा' कर उठता है। इसकी यह पुकार भी बड़ी अद्भुत है। प्रत्येक बार इसके स्वर में उत्साह, कुतूहल, प्रेम - पता नहीं क्या - क्या होता है। प्रायः यह ऐसे उत्साह से पुकारता है, जैसे कोई बहुत अद्भुत बात अपने दादा से कहने जा रहा हो या फिर इसका दादा इसे कई युगों के बाद मिला हो।
और यह दाऊ भी कन्हाई जब भी पुकारेगा, इसके नेत्र उसकी ओर घूम ही जाएंगे। बदले में यह बहुत कम बार पुकारता है, बहुत कम बार सम्बोधन करता है। बस नेत्र उठाकर देखेगा छोटे भाई की ओर। उस समय इसके नेत्रों की भावभरी भंगी - देखने ही योग्य होती है वह छटा तो। दाऊ गाढ़ निद्रा में हो, कन्हाई पुकार ले उसे, तो उस समय भी वह 'हूं. हां' अवश्य कर उठेगा और उसके नेत्र न सही, पर हाथ निद्रा में ही अपने छोटे भाई को टटोल लेने के लिए उठेंगे।
बसंत की यह पुष्पित, किसलय मंडित वनश्री। हरित दूर्वा से आच्छादित भूमितल। पशु - पक्षियों का आनंद - उल्लास और भ्रमरों का मत्त गुंजन सार्थक हो गया है आज। आज राम - श्याम दोनों ने सुमनों से अपने को सजाया है। उज्ज्वल पुष्पों की छोटी मालाओं में नीचे पाटल के पुष्प लगाकर उन्हें इन दोनों ने कानों में पहिन लिया है। कानों को घेर कर, रत्नकुंडलों को बंदी करके शोभित वे मालाएँ और कपोलों पर लटकते पाटल के मृदुल सुमन। सघन स्निग्ध मृदुल सुमन। घुंघराली अलक राशि भी उज्ज्वल मोटी माला से घिरी है और फहरा रहे हैं मस्तक पर मयूरपिच्छ। कलाइयों में स्वर्ण - मल्लिका की माला आज कंगन बन गई है और भुजाओं के स्वर्णांगद यूथिका - सुमनों के अंगदों के साहचर्य से अत्यधिक भूषित हो गए हैं। वक्ष पर गुंजा, कुंद तुलसीदल की उत्तरोत्तर बड़ी मालाओं को अपने अंग में लिये पचरंगे पुष्पों की खूब मोटी वैजयंती माला घुटनों तक लटक रही है। दाऊ एक सघन नाटे फैले हुए छत्राकार तमाल के नीचे बैठा है एक शिलापर। उसके दोनों चरण शिला से नीचे हरित दूर्वा पर दो विकच सरोज - जैसे लगते हैं। #Books