पंखुड़ी (भाग 1) प्रातः सूरज की किरणे, पक्षियों की चहचहाहट, बारिश की बूंदे, इंद्रधनुष के रंग, हवाओं के झोंको से खिड़की खुलती है प्रकृति की ओर.. |||||||||| काव्य को अपनी खिड़की से बाहर की दुनियां बड़ी प्यारी लगती है |रोज की तरह वो उठी अपनी आँखों को मलते हुए.उसे अंगड़ाइयां लेते देख ऐसा लगता है मानो जैसे उसकी अँगड़ाइयों से आजाद होकर ही सूरज की किरणें आसमां में बिखर रही हैं | काव्य उठ कर जाती है खिड़की की ओर, हवाओं के झोंको को महसूस करते हुए उसका ध्यान जाता है अपने सामने वाले घर की खिड़की पर.. एक लड़की जो देखने में नयी नवेली दुल्हन सी लग रही थी खिड़की के उस पार ख़डी थी, वो भी काव्य जैसे ही हवाओं के झोंको को महसूस कर रही थी |||||||||||| (काव्य दौड़ के माँ के पास जाती है ) "माँ वो सामने वाले घर मे लड़की कौन आयी है पता है क्या तुमको"? अरे वो रमेश है न वो ब्याह के लाया है.."हींग लगी न फिटकरी रंग चोखो "चार आदमी गये ओर ले आये ब्याह के | ब्याह के !!! (काव्य ने आश्चर्य से कहा ) पर वो लड़की तो मुझसे भी कम उम्र की लग रही है देखने से ओर रमेश तो अठ्ठाइस बरस का है माँ, ऊपर से नशा भी करता है वो दुनियां भर की खराब आदते है उसमे.. अनाथ है बेचारी बोझ समझ ब्याह दी होगी बिना छान बीन करे..अब यही भाग बेचारी का माँ पर.... उसके सवालों पर अपनी करछी दिखाते हुए काव्य की माँ ने कहा, "हाथ मुँह धो आ दोबारा चाय नहीं बनाउंगी अब " काव्य अपने भीतर उठ ते सवालों को लिये चाय पीने लगती है अगला भाग जारी..... #पंखुड़ी