"रामलीला" शाम 4 बजते ही कस्बे के बच्चे घर के चबूतरे पर जाने की जिद करते ...और हम जैसे शैतान बच्चे दोपहर के 2 बजते ही सीधे उस मंदिर का रुख करते जहाँ दरअसल राम ,सीता ,लक्ष्मण का श्रंगार किया जाता था ... घर, मंदिर के पास था तो जाहिर है " राम " के साक्षात दर्शन कौन नहीं करना चाहेगा ... हम बच्चों के लिए बचपन में राम स्वरूप धारण करने वाला वो साधारण सा लड़का भगवान बन जाता ... मन की सारी मुरादे उसी से माँगते ... फिर क्या था ... उसके हर बार गली से गुजरते ही हम सब बच्चे मिलकर " राम जी - राम जी " कर चिल्लाते ... राम - सीता का " विमान " जब हर शाम आँखों के सामने से गुजरता तो बस उसके पीछे जाने की सोचते ... पर मोहल्ले की सुरक्षा से बंधे हम बच्चे ऐसा कभी नहीं कर पाए ... ;-) दशहरा भी खास था ... इसलिए नहीं , कि उस दिन रावण मरता था ... बल्कि इसलिए कि राम - रावण के युद्द के समय उनका तीर हाथ लग जाये ... गलती से अगर तीर मिल गया तो हमारे गुरुर का ठिकाना ही नहीं रहता ... जैसे " तीर मारना " बड़ी बात है वैसे ही हम बच्चों को वो "तीर मिल जाना" बड़ी बात थी :) बचपन में रामलीला दरअसल हम बच्चों के लिए " मेले वाले दिन " हुआ करते थे ... जिसके शुरू होने से पहले ही पैसे जोड़ने की जुगाड़ की जाती ... ज्यादा नहीं ... बस 10 - 20 रुपए मिलते होंगे शायद उस समय ... जो हम बच्चों के झूला झूलने ,सोफ्टी खाने ,गोलगप्पे खाने के लिए काफी थे ... सब बच्चे एक साथ मेला जाते इस सीख के साथ कि, सब एक दुसरे का हाथ पकड़े रहना ;) मेले में बड़ी दुकानों पर सजी महँगी चीजों से हमारा कोई वास्ता नहीं था ... मन लेना भी चाहे तो मन को समझा लेते " पापा के साथ आकर लेंगे " हजारों की भीड़ में जाने पहचाने चेहरे ,लाऊड स्पीकर पर बजते पुराने गाने और कभी - कभी बच्चे खोने की सूचना , कानों में पड़ती रामलीला वाली प्रचलित ध्वनि जो कस्बे का हर व्यक्ति पहचानता है ... यही माहौल होता था पूरे 10 दिन ...