#OpenPoetry #गौरा बस चुकी है गौरा उत्तुंग शिलाओं पर आवाज न दे तू अब भोले. कर रही थी कृंदन विरह स्वरों में हुंकार भरी थी तब भोले? कितना अश्रुपूरित विरहगान था संग्यान लिया था तब भोले? गुणगान करो अब रिचाओं का रहो ध्यान मग्न तुम अब भोले. विग्रह और विरह में अन्तर है बस पुरातन प्रथाओं का कुछ चित्त की विषमताओं का कुछ भाषायी मात्राओं का इस अनुभूति से तुम थे परिचित अनादि काल से परन्तु गौरा भी अब अनभिग्य नहीं रही भोले. #OpenPoetry