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छेड़ती है मुझे वह धुंधली सी परछाई, मानों,साँझ संवे

छेड़ती है मुझे वह धुंधली सी परछाई,
मानों,साँझ संवेरे होती हाथापाई,
मन मस्तिष्क में आशंकाओं की उथल पुथल है.. 
कैसे करूँ मैं स्वप्निल राहों की अगुवाई।

ग्रीष्मकाल की नींदों से भटकी अंगड़ाई,
स्वेद की चिपचिप ना देती जोश तरुणाई,
रग रग में अभिलाषाओं की उथल पुथल है.. 
कैसे करूँ मैं कठिन राहों की अगुवाई।

लगे खाली सी बहती शीतल पुरवाई,
साँसों में भरे ना क्रांति की सुगबुगाई,
जोश होश ओ आशाएँ सब उथल पुथल है.. 
कैसे करूँ मैं प्रेम प्रतिज्ञा की अगुवाई। 

छेड़ती है मुझे वह धुंधली सी परछाई। 
--------
कवि आनंद दाधीच, भारत

©Anand Dadhich #परछाई #newpoem #confused #poetananddadhich #kaviananddadhich #poetsof2023 #indianwriters
छेड़ती है मुझे वह धुंधली सी परछाई,
मानों,साँझ संवेरे होती हाथापाई,
मन मस्तिष्क में आशंकाओं की उथल पुथल है.. 
कैसे करूँ मैं स्वप्निल राहों की अगुवाई।

ग्रीष्मकाल की नींदों से भटकी अंगड़ाई,
स्वेद की चिपचिप ना देती जोश तरुणाई,
रग रग में अभिलाषाओं की उथल पुथल है.. 
कैसे करूँ मैं कठिन राहों की अगुवाई।

लगे खाली सी बहती शीतल पुरवाई,
साँसों में भरे ना क्रांति की सुगबुगाई,
जोश होश ओ आशाएँ सब उथल पुथल है.. 
कैसे करूँ मैं प्रेम प्रतिज्ञा की अगुवाई। 

छेड़ती है मुझे वह धुंधली सी परछाई। 
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कवि आनंद दाधीच, भारत

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