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" हम और अहमियत " """हम और अहमियत """

" हम और अहमियत "
 """हम और अहमियत """

                      हमारी निरस स्थितप्रज्ञता हमारी परिस्थितिमूलक साधना का प्रवर परिणाम है, हमसे एकांश सरसता की प्राप्ति भी प्राप्तकर्ता का विशेष सौभाग्य है क्योंकि हमसे इसकी अपेक्षा करना किसी मुर्दे से क्रियाशीलता की अपेक्षा करने से कदापि कम नहीं है. यह संभव है कि किसी को हमारी सरसता भी किसी निरसता से कम न प्रतीत हो. परन्तु यह सच है, हमारी निरसता हमारी भावशून्य निष्ठुरता का ही परिणाम है. भावशू्न्यता की इस अवस्था की प्राप्ति महज़ हमारा संयोग नहीं है वरन् यह हमारे अतीत का वास्तविक परिणामी है. हर किसी के अपनी जीवन लीला होती है, कोई भी पूर्णतः सुखी नहीं है, अभाव मुक्त भी नहीं, सर्वदा एकसा जीवन जी पाने की संभावना भी संभव नहीं रहती है , ऐसे में कोई कम तो कोई अपेक्षाकृत अधिक सुख भोगने व तृष्णा पूर्ति को जीवनभर संघर्ष में बना रहता है. हर किसी के लिए प्रत्येक जीवन विन्यासों एवं उसके रंगों को जीने के अलग- अलग मायने होते हैं, उनमें उनकी संतुष्टि व तृप्ति के मानक भी वैयक्तिकता से प्राय: परिपूर्ण रहते हैं. ऐसा हो सकता है कि कोई कण भर में ही अपनी तृषा को संतुष्ट कर ले या फिर मन भर के हासिल होने तक उसे संतुष्टि प्राप्त ही न हो, परन्तु ऐसे भी प्राणी इस संसार में हैं जिन्हें अपनी चरम संतुष्टि नगण्यता में ही कण भर तक पहुँचे बिना ही प्राप्त हो जाती हो.

              प्राणी जीवन कोई भी हो, उनमें स्वजात के प्रति सामूहिकता, सहकार, संवेदनशीलता व सामाजिक भ्रातृत्व के अभिलक्षण विद्यमान होते ही हैं. फिर भी विश्लेषणात्मकता से उनमें भी उनके अपवादों से पृथकता प्राय: दृष्टिगत् हो ही जाती है. प्रकृति में कोई भी किसी का न तो पूर्ण समावयवी है और न ही पूर्णतः पृथक्कृत अलगावी. हर कोई किसी न किसी स्तर पर हर किसी के समकक्ष अवश्य ही होता है, भले ही उनके मध्य जमीन और आसमान का अन्तर ही क्यों न हो. ऐसे में हम तो ठहरे एक देहधारी मानवजात तो अन्य देहधारी मानवजात से जुड़ना कोई आश्चर्य नहीं है, किन्तु हम मानवजातों के प्रस्थितिमूलक मूल्य स्वजातों से भी अन्तर स्थापित ही करवा ही लेते हैं, ये जितने समष्टिगत कारकों से आबद्ध होते हैं, उतने ही व्यष्टिगत कारकों से भी आबद्ध होते हैं. ऐसे में संपर्की योज्यता के सूत्र किससे व किसके कितनी उच्चता से बंधित हुए होते हैं, यह लोगों को संबंधों में अहमियतता को जांचने व उनके परीक्षण से बचे रहने के लिए समझना चाहिए नहीं तो संबंध विच्छेदन की स्थितियाँ भी जीवन यथार्थ बन सकती है. यदि इन्हें दो पक्षों में मानकर विवेचित करें तो निष्कर्ष ऐसा हो सकता है कि कोई एक पक्ष अधिक भावनात्मक व संवेदनशील हो और अन्य दूसरा पक्ष कम भावनात्मक व संवेदनशील हो अथवा वह इनमें नगण्य अर्थात् शून्य हो. किसी एक के लिए समाजिकता की कतिपय कड़ियाँ जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती हो, तथा अन्य दूसरे के लिए यह सब मिट्टी के माधव मात्र के सिवा कुछ न हों वह इन्हें मात्र अपने समाज की एक सामान्य कड़ी मानता हो. ऐसे में यदि दूसरा पहले की अपेक्षाओं पर खरा न हो तो क्या वह पहले के लिए अपनी भावनात्मक अक्रियशीलता व संवेदनशून्यता के लिए दोषी है, शायद नहीं क्योंकि उसकी वर्तमान प्रकृति ही ऐसी बन चुकी है. वह अपनी गर्दन को रेते जाने पर भी उफ़ तक न करे, आंखों में नमी का नामोनिशान तक न आने दे जहाँ मरूभूमियों की शुष्कता भी शर्मसार होकर आह...! खींच दे, उससे ऐसे अपेक्षायें कहाँ तक तर्कसंगत हैं, फिर भी यदि कोई ऐसा देही पहले की भावनात्मकता से एकांशी संबंध भी निभा ले तो वह जहाँ पहले के लिए एक ओर उसका जाग्रत सौभाग्य होगा, वहीं दूसरे के लिए शायद एवरेस्ट फतह या शायद उससे भी हजार गुना अधिक दुर्गम उपलब्धि. 

                यह जो भावशून्य दूसरी प्रकृति के लोग होते हैं न इनके विषय में जो इनका सबसे निकटस्थ करीबी भी होता है, उसे तक इनके जीवन की वास्तविकता का 10% तक भी ठीक से नहीं पता होता. इनके बाह्य एवं आंतरिक जीवन का प्रदर्श साम्य इतना स्थिर व संतुलित प्रकृति का होता है कि त्रिकालदृष्टा भी संभव है कि इनकी थाह पाने में घुटने टेक दें. इनका अपने और अपनों के हितों के प्रति समर्पण का अनूठा एवं अद्भुत तालमेल होता है, जहाँ हर कोई इन्हें एलियन यानि परग्रही कहने में क्षण मात्र भी गुरेज नहीं करता. ऐसे में इनके संपर्की प्राय: इनकी उदासीन रवैयों के हमेशा होने से परभावना   से सराबोर समझने लगते हैं, जबकि इनका ऐसा कोई सरोकार कहीं होता ही नहीं. इन्हें स्वार्थी, मतलबी, ऐरोगेन्टिव, नजरंदाज करने वाला इत्यादि कोई कुछ भी क्यों न समझे या कहे, इन्हें इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता क्योंकि मतभेदों को आवश्यक समझने पर ही उनके प्रति सहिष्णुता को अभिव्यक्त करते हैं अन्यथा मार्ग व स्थान परिवर्तित कर उनसे किनारा कर लेते हैं. द्वन्द इनका स्वयं बनाम् स्वयं से ही मात्र होता है अन्य से तो बाहुद्वन्द तो दूर वाक् द्वन्द्व तक नहीं होता, इसका प्रदर्शन संभव है कि विरले ही कभी हो. खैर कुछ भी हों इस दुर्लभ सीमा में कोई आये या न आये, यह हमारा यथार्थ है. अतैव हम उन सभी को अपने विषय में यह सुस्पष्ट बता देते हैं, जो हमसे जुड़ाव रखते हैं या रखने के अभिलाषी हैं कि...
" हम और अहमियत "
 """हम और अहमियत """

                      हमारी निरस स्थितप्रज्ञता हमारी परिस्थितिमूलक साधना का प्रवर परिणाम है, हमसे एकांश सरसता की प्राप्ति भी प्राप्तकर्ता का विशेष सौभाग्य है क्योंकि हमसे इसकी अपेक्षा करना किसी मुर्दे से क्रियाशीलता की अपेक्षा करने से कदापि कम नहीं है. यह संभव है कि किसी को हमारी सरसता भी किसी निरसता से कम न प्रतीत हो. परन्तु यह सच है, हमारी निरसता हमारी भावशून्य निष्ठुरता का ही परिणाम है. भावशू्न्यता की इस अवस्था की प्राप्ति महज़ हमारा संयोग नहीं है वरन् यह हमारे अतीत का वास्तविक परिणामी है. हर किसी के अपनी जीवन लीला होती है, कोई भी पूर्णतः सुखी नहीं है, अभाव मुक्त भी नहीं, सर्वदा एकसा जीवन जी पाने की संभावना भी संभव नहीं रहती है , ऐसे में कोई कम तो कोई अपेक्षाकृत अधिक सुख भोगने व तृष्णा पूर्ति को जीवनभर संघर्ष में बना रहता है. हर किसी के लिए प्रत्येक जीवन विन्यासों एवं उसके रंगों को जीने के अलग- अलग मायने होते हैं, उनमें उनकी संतुष्टि व तृप्ति के मानक भी वैयक्तिकता से प्राय: परिपूर्ण रहते हैं. ऐसा हो सकता है कि कोई कण भर में ही अपनी तृषा को संतुष्ट कर ले या फिर मन भर के हासिल होने तक उसे संतुष्टि प्राप्त ही न हो, परन्तु ऐसे भी प्राणी इस संसार में हैं जिन्हें अपनी चरम संतुष्टि नगण्यता में ही कण भर तक पहुँचे बिना ही प्राप्त हो जाती हो.

              प्राणी जीवन कोई भी हो, उनमें स्वजात के प्रति सामूहिकता, सहकार, संवेदनशीलता व सामाजिक भ्रातृत्व के अभिलक्षण विद्यमान होते ही हैं. फिर भी विश्लेषणात्मकता से उनमें भी उनके अपवादों से पृथकता प्राय: दृष्टिगत् हो ही जाती है. प्रकृति में कोई भी किसी का न तो पूर्ण समावयवी है और न ही पूर्णतः पृथक्कृत अलगावी. हर कोई किसी न किसी स्तर पर हर किसी के समकक्ष अवश्य ही होता है, भले ही उनके मध्य जमीन और आसमान का अन्तर ही क्यों न हो. ऐसे में हम तो ठहरे एक देहधारी मानवजात तो अन्य देहधारी मानवजात से जुड़ना कोई आश्चर्य नहीं है, किन्तु हम मानवजातों के प्रस्थितिमूलक मूल्य स्वजातों से भी अन्तर स्थापित ही करवा ही लेते हैं, ये जितने समष्टिगत कारकों से आबद्ध होते हैं, उतने ही व्यष्टिगत कारकों से भी आबद्ध होते हैं. ऐसे में संपर्की योज्यता के सूत्र किससे व किसके कितनी उच्चता से बंधित हुए होते हैं, यह लोगों को संबंधों में अहमियतता को जांचने व उनके परीक्षण से बचे रहने के लिए समझना चाहिए नहीं तो संबंध विच्छेदन की स्थितियाँ भी जीवन यथार्थ बन सकती है. यदि इन्हें दो पक्षों में मानकर विवेचित करें तो निष्कर्ष ऐसा हो सकता है कि कोई एक पक्ष अधिक भावनात्मक व संवेदनशील हो और अन्य दूसरा पक्ष कम भावनात्मक व संवेदनशील हो अथवा वह इनमें नगण्य अर्थात् शून्य हो. किसी एक के लिए समाजिकता की कतिपय कड़ियाँ जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती हो, तथा अन्य दूसरे के लिए यह सब मिट्टी के माधव मात्र के सिवा कुछ न हों वह इन्हें मात्र अपने समाज की एक सामान्य कड़ी मानता हो. ऐसे में यदि दूसरा पहले की अपेक्षाओं पर खरा न हो तो क्या वह पहले के लिए अपनी भावनात्मक अक्रियशीलता व संवेदनशून्यता के लिए दोषी है, शायद नहीं क्योंकि उसकी वर्तमान प्रकृति ही ऐसी बन चुकी है. वह अपनी गर्दन को रेते जाने पर भी उफ़ तक न करे, आंखों में नमी का नामोनिशान तक न आने दे जहाँ मरूभूमियों की शुष्कता भी शर्मसार होकर आह...! खींच दे, उससे ऐसे अपेक्षायें कहाँ तक तर्कसंगत हैं, फिर भी यदि कोई ऐसा देही पहले की भावनात्मकता से एकांशी संबंध भी निभा ले तो वह जहाँ पहले के लिए एक ओर उसका जाग्रत सौभाग्य होगा, वहीं दूसरे के लिए शायद एवरेस्ट फतह या शायद उससे भी हजार गुना अधिक दुर्गम उपलब्धि. 

                यह जो भावशून्य दूसरी प्रकृति के लोग होते हैं न इनके विषय में जो इनका सबसे निकटस्थ करीबी भी होता है, उसे तक इनके जीवन की वास्तविकता का 10% तक भी ठीक से नहीं पता होता. इनके बाह्य एवं आंतरिक जीवन का प्रदर्श साम्य इतना स्थिर व संतुलित प्रकृति का होता है कि त्रिकालदृष्टा भी संभव है कि इनकी थाह पाने में घुटने टेक दें. इनका अपने और अपनों के हितों के प्रति समर्पण का अनूठा एवं अद्भुत तालमेल होता है, जहाँ हर कोई इन्हें एलियन यानि परग्रही कहने में क्षण मात्र भी गुरेज नहीं करता. ऐसे में इनके संपर्की प्राय: इनकी उदासीन रवैयों के हमेशा होने से परभावना   से सराबोर समझने लगते हैं, जबकि इनका ऐसा कोई सरोकार कहीं होता ही नहीं. इन्हें स्वार्थी, मतलबी, ऐरोगेन्टिव, नजरंदाज करने वाला इत्यादि कोई कुछ भी क्यों न समझे या कहे, इन्हें इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता क्योंकि मतभेदों को आवश्यक समझने पर ही उनके प्रति सहिष्णुता को अभिव्यक्त करते हैं अन्यथा मार्ग व स्थान परिवर्तित कर उनसे किनारा कर लेते हैं. द्वन्द इनका स्वयं बनाम् स्वयं से ही मात्र होता है अन्य से तो बाहुद्वन्द तो दूर वाक् द्वन्द्व तक नहीं होता, इसका प्रदर्शन संभव है कि विरले ही कभी हो. खैर कुछ भी हों इस दुर्लभ सीमा में कोई आये या न आये, यह हमारा यथार्थ है. अतैव हम उन सभी को अपने विषय में यह सुस्पष्ट बता देते हैं, जो हमसे जुड़ाव रखते हैं या रखने के अभिलाषी हैं कि...