पंखुड़ी (भाग 5) खाना खा कर काव्य अपने कमरे मे आ जाती है. खट खट.. दरवाज़े पर आवाज आती है "आ जाइये भैया "काव्य कहती है वेद.. काव्य की तरह की उस सामने वाली खिड़की को देखने लगा आते ही उसे पंखुड़ी से पहली नजर वाला प्यार हो रहा था काव्य को ये दिख रहा था..भैया उसका नाम पंखुड़ी है..उसके साथ.. वेद का फोन बजा ओर वो अपने कमरे मे चला गया || अगली सुबह काव्य उठ कर खोलती है अपनी खिड़की तो पंखुड़ी वहीं ख़डी उसका इंतजार कर रही थी उसके माथे पर चोट के निशान थे वो नम आँखों से मानो पंखुड़ी से मदद मांग रही थी |||||| काव्य दौड़ कर हांफते हुए माँ के पास गयी "कोनसा बुरा सपना देख लिया जो हाँफ रही है " हकीकत भी तो बुरी हो सकती है माँ... माँ पंखुड़ी के साथ गलत हो रहा है क्यों? क्या हुआ उसे (काव्य की माँ ने पूछा ) वो रमेश उसके साथ जबरदस्ती करता है माँ, वो उस दिन रो रही थी ओर आज उसके माथे पर चोट है "वो उसका पति है उसे जबरदस्ती न कहते"(काव्य की माँ न जवाब दिया ) "जबरदस्ती तो जबरदस्ती होती है न माँ चाहे पति करे या कोइ अजनबी " वो पति है उसका उसे जबरदस्ती नहीं समर्पण कहते है (काव्य की माँ ने कहा ) "समपर्ण"...... (काव्य ने आश्चर्य से कहा ) समर्पण जबरदस्ती नहीं होता माँ उसमे मंजूरी होती है.. समर्पण में अधरों को चूमने से पहले चूमा जाता है मन को ओर उससे भी पहले समझा जाता है एक दूसरे को ली जाती है मंजूरी... बिना स्वकृति के समर्पण नहीं होता बस कर...सवालों के बवंडर पर विराम लगते हुए उसकी माँ ने कहा "शर्म कर थोड़ी ममैं सहेली नहीं हूँ तेरी ये बातें अपनी सहेलियों से किया कर माँ कभी तो मेरी सहेली बन जाया करो माँ बेटी का रिश्ता ओर प्यारा हो जायेगा माँ... #पंखुड़ी भाग 5