टंकी में से बहती जलधार में भी है प्रेमधार... आज शाम को जब छत पर एक्सरसाइज कर रहा था तो ध्यान अचानक थोड़ी दूर बने घर की छत पर रखी पानी की टंकी पर चला गया...वो पानी की टंकी फुल हो गयी थी और पानी बस बहे जा रहा था से...जैसे किसी प्रेमी का अपनी प्रेमिका के लिए मादक और आकर्षक प्रेम या किसी प्रेमिका का अपने प्रेमी के लिए उसका निश्चल और मोहक प्रेम...इस बहते हुए पानी में भी प्रेम का भाव है...कोई पूछे उन बाहर गिर रही बूंदों से जो बिलकुल भी उस टंकी को छोड़कर नहीं जाना चाहती...या कोई उस टंकी से पूछे जिसका जन्म ही हुआ उस पानी को अपने पास रखने के लिए, अपने आगोश में रखने के लिए ...उसे कौन समझाए प्रेम का जन्म भी कभी बंधने के लिए नहीं हुआ है...जैसे हनुमान प्रभु को वरदान था की कोई भी पाश या बंधन उन्हें नहीं बाँध सकता वैसे ही प्रेम एक अविरल, अकाट्य और न बांधे जाने वाला सूत्र है...यदि पूर्ण हो गया और रुक गया तो खो देगा शायद अपना अस्तित्त्व...जम जाएगी उसमें काई...रहने दो इसे अपूर्ण...इस अपूर्णता में ही इसका मोक्ष कहीं निहित है... प्रेम का एक सूक्ष्म छड़ और सूक्ष्म कण भी व्यर्थ नहीं जाता, पानी की तरह अपनी दिशा बना अपनी सही जगह पहुंच ही जाता है, वापस मिल जाता है आकर अपने प्रेमी से...जैसे कल यह टंकी फिर खाली हो जाएगी तब फिर इसे प्रेम देने आ जाएँगी कुछ जल धाराएं हौले हौले फिर से... टंकी से बहते पानी में भी हौले हौले हिलोरे मारता है प्रेम ... टंकी में से बहती जलधार में भी है प्रेमधार... - दीपक कनौजिया