हाँ! उलझी रहती हूँ कभी सूरज तो कभी चाँद में अपने से आसमान में तुम समेटो अपना चाँदी और सोना भर लो मुट्ठी में हीरे और जवाहरात कितना कुछ बदल गया बदल गए कितने एहसास हमेशा अपनी सी धुन में रमे ये सूरज-चाँद पीढ़ियों से सिर्फ देते जाते हैं और तुम लूटते रहते हो! सोचा है कितनी मुश्किल होगी बदल जाए गर इनका स्वभाव? गृहस्थ का भाव लिए निभा रहे हैं सदियों से धरती से नाता तुम्हारे लिए बस सहज दिन है आता जाता और तुम चले जाते हो अपनी धुन में मैं बस बैठ जाती हूँ, सुबह शाम कुछ क्षण इनके पास... जैसे बाबा और मामा के साथ झाँकने इनकी आँखों में इतिहास अच्छी लगती हैं मुझे कहानियाँ पर तुम्हें न फुर्सत है सुनने की ना ही सुनाने की... पर इनके पास है कथा अथाह हर विस्मृत वो राह #sustainability