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बंद मुट्ठी में चंद रेखाओं को सजा रख्खा है । मुट्ठी

बंद मुट्ठी में चंद रेखाओं को सजा रख्खा है ।
मुट्ठी से बस मैंने हथोड़े को  उठा रख्खा है ।। 
होले- होले धार बढ़ाता हूँ अपने कलम की ।
छैनी-हथौड़ी को मैंने बोरी में सजा रख्खा है ।। 
लोग मुट्ठी को ताक़त समझते है ख़ुराक़ की । 
मैंने अपनी इबादतों को राज़ बना रख्खा है । । 
मुट्ठी को मुक्का समझना भूल है लोंगो की।
ताक़त सब में है,बस रोना लगा रख्खा है ।।
लूटना चाहता है हर कोई पोटलियाँ सवाब की ।
ये  क़िस्सा तो अज़ल से भी आला रख्खा है ।।  
किरदारों को ज़रूरत क्यों पड़ती है कहानी की। 
क्या फ़ूलों ने खुशबू सूंघने वाला बुला रख्खा है ।।
जेब खर्ची ही माँगता हूँ बस रब से यार ज़िन्दगी। 
लोगों ने मुझे माँगने वाला भिखारी बता रख्खा है ।।
मेरी माँ ने बहुत अरदासें की मेरी रोज़ी के वास्ते।
पापा कहते थे  सितारों ने तुझे  सता रख्खा है ।।
जन्नत वनन्त वाले ख़्वाब नहीं है रे अपने ।
मैंने तो बस यूँ ही नरक में लंगर खुला रख्खा है ।।
वेबा होती जा रहीं है रोज़ औरतें मेरे  गाँव की।
क़ब्र खोदने वाले ने अच्छा पैसा कमा रख्खा है । 
सतिन्दर की तो आदत है हर किसी से राम राम की
दूर रहा कर सब से यहाँ तो हर कोई मर जाना रख्खा है ।

©️✍️ सतिन्दर पूरी नज़्म रख्खा है 
बंद मुट्ठी में चंद रेखाओं को सजा रख्खा है ।
मुट्ठी से बस मैंने हथोड़े को  उठा रख्खा है ।। 

होले- होले धार बढ़ाता हूँ अपने कलम की ।
छैनी-हथौड़ी को मैंने बोरी में सजा रख्खा है ।। 

लोग मुट्ठी को ताक़त समझते है ख़ुराक़ की ।
बंद मुट्ठी में चंद रेखाओं को सजा रख्खा है ।
मुट्ठी से बस मैंने हथोड़े को  उठा रख्खा है ।। 
होले- होले धार बढ़ाता हूँ अपने कलम की ।
छैनी-हथौड़ी को मैंने बोरी में सजा रख्खा है ।। 
लोग मुट्ठी को ताक़त समझते है ख़ुराक़ की । 
मैंने अपनी इबादतों को राज़ बना रख्खा है । । 
मुट्ठी को मुक्का समझना भूल है लोंगो की।
ताक़त सब में है,बस रोना लगा रख्खा है ।।
लूटना चाहता है हर कोई पोटलियाँ सवाब की ।
ये  क़िस्सा तो अज़ल से भी आला रख्खा है ।।  
किरदारों को ज़रूरत क्यों पड़ती है कहानी की। 
क्या फ़ूलों ने खुशबू सूंघने वाला बुला रख्खा है ।।
जेब खर्ची ही माँगता हूँ बस रब से यार ज़िन्दगी। 
लोगों ने मुझे माँगने वाला भिखारी बता रख्खा है ।।
मेरी माँ ने बहुत अरदासें की मेरी रोज़ी के वास्ते।
पापा कहते थे  सितारों ने तुझे  सता रख्खा है ।।
जन्नत वनन्त वाले ख़्वाब नहीं है रे अपने ।
मैंने तो बस यूँ ही नरक में लंगर खुला रख्खा है ।।
वेबा होती जा रहीं है रोज़ औरतें मेरे  गाँव की।
क़ब्र खोदने वाले ने अच्छा पैसा कमा रख्खा है । 
सतिन्दर की तो आदत है हर किसी से राम राम की
दूर रहा कर सब से यहाँ तो हर कोई मर जाना रख्खा है ।

©️✍️ सतिन्दर पूरी नज़्म रख्खा है 
बंद मुट्ठी में चंद रेखाओं को सजा रख्खा है ।
मुट्ठी से बस मैंने हथोड़े को  उठा रख्खा है ।। 

होले- होले धार बढ़ाता हूँ अपने कलम की ।
छैनी-हथौड़ी को मैंने बोरी में सजा रख्खा है ।। 

लोग मुट्ठी को ताक़त समझते है ख़ुराक़ की ।