नित हार के माथे नवल मैं जीत लिखती हूँ, आंसूँ को पोंछ मधुरमय संगीत लिखती हूँ ...|| रण-भूमि से भागूँ ? सुनो,कायर नहीं हूँ मैं, निज-राष्ट्र की अपने हृदय में प्रीत लिखती हूँ ...|| भू-खण्ड-खण्ड भाग का फिर एक अंग हो, शत्रुघ्न बनके अरि का अब मुण्ड-मण्ड हो, हो उदित हिम केसरी, मन-प्रण प्रचण्ड हो, सीमा परे कुकृत्य पर अविस्मर्ण्य दण्ड हो , जीवन्त हों निर्मोही मन ये अपेक्षा रखकर , मस्तक-पटल पर केसरी मनमीत लिखती हूँ ...|| निज राष्ट्र की अपने हृदय में प्रीत लिखती हूँ ...|| हम उन वीरों के अनुज, कबन्ध जिनके लड़ते थे, बरछी-बाण-कोदंड-कटारी से ना तनिक डरते थे , रण में धड़ ही दुश्मन को कर चीर अलग करते थे, लिए एक-लिंग शपथ स्व-जननी पर मर-मिटते थे, धन-यश लोलुपता को त्यागो राष्ट्र-उदय हो लक्ष्य, यूँ एकीकृत भारत की नव-विजय रीत लिखती हूँ ...|| निज राष्ट्र की अपने हृदय में प्रीत लिखती हूँ ...|| उठो वीर ! अब सजग बनो, वरना संताप करोगे , समर-भूमि से यदि डरे फिर पश्चाताप करोगे , प्रतिदिन कुछभी खोने का कब तक आलाप करोगे, अभी रहे यदि सुप्त-अस्थिर फिर से पाप करोगे, हम हों विजित प्रति ग्रीष्म-वर्षा-शीत लिखती हूँ , हृय बंधुत्त्व संजोये कर्त्तव्य - गीत लिखती हूँ ...|| निज राष्ट्र की अपने हृदय में प्रीत लिखती हूँ ...|| #समीक्षा"एक प्रारम्भ" ©® नाथ-नगरी , बरेली,उ.प्र., भारतवर्ष नित हार के माथे नवल मैं जीत लिखती हूँ, आंसूँ को पोंछ मधुरमय संगीत लिखती हूँ ...|| रण-भूमि से भागूँ ? सुनो,कायर नहीं हूँ मैं, निज-राष्ट्र की अपने हृदय में प्रीत लिखती हूँ ...|| भू-खण्ड-खण्ड भाग का फिर एक अंग हो, शत्रुघ्न बनके अरि का अब मुण्ड-मण्ड हो, हो उदित हिम केसरी, मन-प्रण प्रचण्ड हो,